नशा, नाश का पर्याय : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

हरमुद्दा
रतलाम, 18 मई। हमारा जीवन आत्मा से परमात्मा, पशु से प्रभु, जीव से शिव और नर से नारायण बनने का साधन है। इसे कुव्यसनों की जलती भट्टी में जलाना मानवता पर कलंक है। अभिशाप है। पढे-लिखे, शिक्षित और साक्षर लोग जब व्यसन सेवी बन जाते है, तब बड़ी चिंता पैदा होती है। जीवन अनमोल है। इसे व्यर्थ के मौजशौक और भौग-विलासिता में खोने के बजाए सात्विक,पवित्र बनाएं।

यह आह्वान शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव प्रज्ञानिधि,परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी महाराज ने किया है। सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री ने धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में कहा कि दांत से आंत तक, दिल से दिमाग तक जो नुकसान करता है, वो व्यक्ति का नशा होता है। नशा, नाश का पर्याय है। यह धन, इज्जत, सेहत और संस्कृति का नाश करता है। इसकी शुरूवात सामूहिक होती है, परन्तु इसका समापन एकाकी होता है। इसके समापन के समय रूग्ण शरीर के अलावा कुछ नहीं बचता। नशा कैसा भी हो,वह धीमा जहर ही होता है। ये जहर ऐसा है, जो पीने वाले के साथ-साथ उसके पूरे परिवार का नुकसान करता है। तात्कालिक रूप से भले ही यह अच्छा लगता है,सुख देता है, लेकिन अंत में इसकी भारी कीमत चुकानी पडती है। कोरोना के इस संकटकाल में नशे की बुरी आदत से बचने का संकल्प करना चाहिए। एक गंदी मछली जैसे पूरे तालाब को गंदा बना देती है,वैसे ही बुरी आदत पूरे जीवन को बर्बाद कर देती है। कोई व्यक्ति एकाकी जीवन नहीं जीता,उसके साथ पूरा परिवार जुडा रहता है। परिवार तभी खुशहाल और निहाल होता है,जब उसमें रहने वाले सभी व्यसन मुक्त होते है।

शान को नष्ट करे वह है नशा

आचार्यश्री ने कहा कि कुव्यसनों से भरा जीवन मानवीय जीवन नहीं होता। यह राक्षसीय जीवन बन जाता है। प्रारंभ में नशा मजा होता है, मध्य में मजबूरी और अंत में मांदगी तथा मौत में परिवर्तित हो जाता है। कुलीन और शालीन व्यक्तियों के जीवन में किसी भी तरह की नशाबाजी नहीं होती। नशेबाज लोग अपने खानदान के गौरव एवं इज्जत को महिमामेट कर देते है। नशा शब्द ही बोलता है, कि जो शान को नष्ट करे, वो नशा है। शान-स्वाभिमान का जीवन जीने वाले व्यक्ति कभी नशे की गिरफत में नहीं आते। शारीरिक कुष्ठ से भी भयंकर और खतरनाक इन कुव्यसनों का कुष्ठ माना गया है।

समाजोत्थान में नशा मुक्ति बहुत बड़ा माध्यम

आचार्यश्री ने बताया कि कुव्यसनों की दासता इतनी भयंकर होती है,कि व्यक्ति जानते-समझते हुए भी इस दासता से उपर नहीं उठ पाता है। इस दासता से जीवन ही भारभूत नहीं बनता, अपितु समाज में कई अनाचार भी पैदा हो जाते है और उन अनाचारों का पोषण भी होता रहता हैं। कुव्यसनो का सेवन जिस समाज में धडल्ले से होता है, वह समाज कभी अपना विकास नहीं कर सकता। उस समाज की भावी पीढी संयम, सत्य, शील और सादगी से कोसों दूर चली जाती है। उसका सामाजिक ढांचा ही चरमरा जाता है। समाजोत्थान में कुव्यसन तथा नशा मुक्ति बहुत बडा माध्यम है। एक अच्छी आदत आदमी का भाग्य अच्छा बनाती है, जबकि एक बुरी आदत उसका भाग्य डूबो देती है। युवा पीढी को निस्तेज और निसत्व बनाने में कुव्यसनों का ही हाथ है। हमारी भारतीय संस्कृति आर्य संस्कृति कहलाती है। इस संस्कृति के पुरोधा महापुरूषों ने कभी अपने जीवन में किसी कुव्यसन का सेवन नहीं किया। इसीलिए उनके चेहरे पर तेज, चरित्र में ओज और चिंतन में सत्य झलकता था। उनका सही लक्ष्य, सही संकल्प और सही आचरण आज भी युवा पीढी के लिए उत्प्रेरक है।

सदा व्यसन मुक्त रहने का ले संकल्प

आचार्यश्री ने कहा कि वर्तमान समय में सबकों मन में संकल्प करना चाहिए कि मै सदा व्यसन मुक्त रहूंगा। याद रखों-नशे से त्वचा पीली पढ जाती है। चेहरे की चमक खत्म हो जाती है। श्वास दुर्गन्धित और याददाश्त कमजोर पड जाती है। नपुंसकता और कैंसर जैसी भयावह स्थिति आ खडी होती है। इसलिए बेवजह अपना घर जलाकर अपने सुखों की होली खेलने का कोई लाभ नहीं है। कोरोेना संकट के इस समय में जो परिस्थितियां बनी है, उसमें व्यसनों से यदि दूरी बनने का अवसर आया है, तो हर व्यक्ति को अपने साथ परिवार, समाज और देश के लिए व्यसनमुक्त बनने की और कदम बढ़ाना चाहिए।

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