ऐसी समृद्धि व्यर्थ, जिसमें शांति का अमृत नहीं : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

हरमुद्दा

रतलाम, 20 मई। लोग समृद्धि को सबसे बड़ी दौलत मानते है। ऐसी समृद्धि व्यर्थ है, जिसमें शांति का अमृत नहीं हो। मन की शांति, जीवन की सबसे बडी दौलत है। कोरोना के इस संकटकाल में हर व्यक्ति को अपने मन की शांति को खोजना चाहिए। मन की शांति का मूल्य किसी ऐसे समृद्ध व्यक्ति से पूछो, जो समृद्धि का तो बादशाह है, मगर मन की शांति का महरूम है।
यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्धेय, आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी महाराज ने कही। सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री ने धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में कहा कि मन की शांति को चिंता और चाह जैसे दो चूहे कुतर रहे है। यदि किसी को कोई चाह नहीं होती, तो उसे कोई चिंता नहीं होती। चाह अगर वह पूरी नहीं होती, तो चिंता शुरू हो जाती है। ऐसे में व्यर्थ की चिंता का त्याग करना जरूरी है। विश्वास रखो-जो चोंच देता है, वह चुग्गा भी देता है। जो कल देगा वो कल की व्यवस्था भी देगा। इस विश्वास से ही चिंतामुक्त हुआ जा सकता है। चाह ही नहीं रहेगी, तो चिंता कैसे रहेगी। इन दोनों के मिट जाने के बाद जो रहेगी, वो मन की शांति ही रहेगी। इस सत्य को जिसने जान लिया, वह शांत बन जाता है।

भूलने की आदत है तो करें इसका उपयोग

उन्होंने कहा कि अगर आपको भूलने की आदत है, तो इसका सही उपयोग करे। उन बातों को भूल जाइए, जो आपके मन को अशांत कर रही है। लेकिन व्यक्ति ऐसी बातों का बार-बार स्मरण कर अपने मन को अशांत करता है। अशांतिदायक निमित्तों का स्मरण अपनी शांति का अवरोधक है। यह मान कर चलो कि दूसरे जितने हमे अशांत नहीं करते, उतने हम ही अपने को अशांत कर रहे होते है। गई-गुजरी बातों व प्रसंगों को नमक-मिर्च लगा-लगाकर याद करते रहने से कुछ नहीं होता, अपितु अपनी शांति दूर होते चले जाती है।

सूखे तालाब की तरह होता है अशांत मन

आचार्यश्री ने कहा कि अशांत मन सूखे तालाब की तरह होता है। इसमें पानी तो सूख जाता है, परन्तु पीछे मिटटी के दरारे रह जाती है। अपने मन को प्रसन्न रखिए। उसमें सकारात्मक चिंतन का पानी डालते रहिए, ताकि अन्तर्मन का खेत हराभरा रहे। शांत रहना या अशांत होना दोनों हमारे हाथ में है। हम किसी के हाथों की कठपुतली नहीं है, जो हमे जैसा चाहे नचाती रहे। स्वयं का आत्म सम्मान स्वयं के आत्म विश्वास से जुड़ा है। आत्म विश्वास जितना प्रखर होता है, उतना आत्म सम्मान प्रगाढ़ होता है।
उन्होंने कहा कि व्यर्थ के उहापोह, संकल्प, विकल्प में मत उलझो। यह प्लाट उस समय मेने पांच लाख में ना बेचा होता, तो आज पांच करोड का हो जाता। ऐसा सोच-सोचकर अपने मन को दुखी मत करिए। जब जिसके साथ जो होना है, तब उसके साथ वह स्वत हो जाता है। यह सात्विक और तात्विक चिंतन है। इससे मन शांत, सहज और स्फूर्त रहता है। बेकार की बातों के सोचने से क्या होने वाला है। मात्र चित्त विक्षिप्त और मन अशांत होता है। जो हुआ उसे स्वीकार करने में ही समझदारी है। सफलता चाहिए तो जो पसन्द है, उसे हासिल कीजिए। वह नहीं मिले, तो जो प्राप्त है, उसमें संतुष्ट रहिए। इससे मन की शांति बनी रहेगी।

आवश्यकता और अपेक्षाओं के बीच संतुलन जरूरी

आचार्यश्री ने कहा कि आवश्यकता और अपेक्षाओं के बीच संतुलन बिठाना बहुत जरूरी है। आवश्यकताएं हर व्यक्ति की पूरी होती है। अपेक्षाएं सारी की सारी पूरी हो, यह जरूरी नहीं है। अपेक्षाओं की पूर्ति में लगा मन कभी शांत नहीं रह सकता। अपेक्षाओं का स्वभाव ही ऐसा है, वह एक पूर्ण होती है, तो दूसरी उत्पन्न हो जाती है। दूसरी, तीसरी को उत्पन्न कर देती है। अपेक्षाए कभी किसी की पूरी न हुई है, ना होगी। तृष्णा का मायाजाल मन को अशांत करता है। इस जाल में मत उलझो। जीवन में सदा प्रसन्न रहो। कुछ भी हाथ से चले जाने पर खेद-खिन्न न होवे। इस सत्य को सदा याद रखकर शांत रहो कि जो मेरा है, वो जाएगा नहीं और जो चला गया, वो मेरा था ही नहीं। इस सत्य के चिंतन से ही मन शांत रहेगा।

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