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तू कहीं भी रहे, मैं हूँ तेरा : डॉ. नीलम कौर की रचनाएं

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तू कहीं भी रहे
मैं हूँ तेरा

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🔲 डॉ. नीलम कौर

तू कहीं भी रहे
मैं हूँ तेरा
साथ हमेशा तेरे
मैं साथ रहूँगा
धरा, आकाश, क्षिति
जल
जब भी मुड़ कर
देखोगी
मैं साया बनकर
साथ रहूँगा

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तू देह मैं रुह हूँ तेरी
तुझमें ही मैं
वास करुँगा
हकीकी दुनियां में
चाहे वजूद मेरा
आज नहीं
पर…………
यादों में तो हरदम
तेरे साथ रहूँगा मैं
अश्रुजल जब रजकण से
मिलेंगे तेरे
भीग-भीग मैं जाऊँगा
सुनी आँखें जब
दूर गली तक जाएगीं
जाकर फिर ना सुनी लौटें
वहीं खड़ा रहूंगा मैं
इस फानि दुनियां में तुम
ना अपने एकाकी
एहसास से घबराना
के हर रुप में तेरे साथ
रहूंगा मैं
तू देह मैं तेरी रुह हूँ
तुझमें ही वास करुँगा मैं।

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लेकिन…..

दिल में मेरे अरमान
बहुत हैं
मजलूमों,मजबूरों के लिए
दिल में दर्द भी बहुत है

लेकिन…..
लेकिन मैं सत्ताधारी
मेरे मन में लालच,
ईर्ष्या-द्वेष,लोलुपता
अहंकार की
परतें पत्थर की
अड़ी है
दर्द की तरल लहर
टक्कर मार-मार
लौट जाती है

करना तो बहुत कुछ
चाहता है मन
भूखे को रोटी,प्यासे को
पानी और पैरों के छालों को
मरहम दे दूं

लेकिन…..
लेकिन मैं अपना
गर आज सब
दे दूंगा तो……..
कल जब चुनाव होंगे
तो……
वोट कैसे खरीदूंगा,
कैसे अपने हँसते
हाथ हिलाते चेहरे के
होर्डिंग लगा
लोगों की नजरों का
नूर बनाऊँगा

सच कहूँ मन तो मेरा भी
यही चाह रहा था
जो भी सुविधा,जैसे
भी मिले,
करके स्तेमाल
सुरसा-सी मुख खोले
जो समस्या आज खड़ी
समाधान उसका
कर लूँ

लेकिन…..
लेकिन इतनी आसानी से
कैसे मैं समझौता
कर लूं
कैसे अपने अहम् को
दरकिनार कर
अपने विपक्ष के सामने
घुटने टेक
उन्हें वाह-वाही लूटने दूं ।

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🔲 डॉ. नीलम कौर

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