मानव को महामानव बनाता है निस्वार्थ कर्म : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

हरमुद्दा
रतलाम, 28 मई। कोरोना के इस संकटकाल में हर मानव को श्रम और स्वावलंबन की महत्ता, उपादेयता और सार्थकता को समझना चाहिए। इसी से विचार परिष्कृत, आचार पवित्र, खान-पान सात्विक और व्यवहार गरिमामय बनते है। सभी तरह के स्वार्थों से ऊपर उठकर निस्वार्थ और निष्काम भाव से किया जाने वाला हर कर्म, धर्म का पूरक होता है। स्वार्थ भरे धर्म और निस्वार्थ कर्म की जब तुलना करते है, तो निस्वार्थ कर्म का पलडा ही भारी होता है। यह कर्म ही मानव को महामानव बनाता है।
यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्धेय, आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी महाराज ने कही। स्टेशन रोड जैन स्थानक पर प्रवास के दौरान धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में उन्होंने कहा कि श्रम और स्वावलंबन ये दो ऐसे घटक तत्व है, जो परिवार को सुखी तथा समाज को प्रगतिशील बनाते है। अच्छा समाज अच्छे परिवार की पृष्ठभूमि पर खड़ा होता है। परिवारों में जब अकर्मण्यकता अथवा जड़ता पैदा हो जाती है, तो समाज पंगु और अशक्त बन जाता है। स्वार्थों का परित्याग किए बिना श्रम और स्वावलंबन का विकास नहीं होता। स्वार्थी व्यक्ति मात्र मैं और मेरा का चिंतन करता है। हम और हमारा का चिंतन स्वार्थी व्यक्ति के जेहन में होता ही नहीं है। इसी कारण वह ना परिवार को सुखी बना पाता है और ना ही समाज को प्रगतिशील बना पाता है।

श्रम और स्वावलंबन से घट रहा है विश्वास

आचार्यश्री ने कहा कि वर्तमान में व्यक्ति का श्रम और स्वावलंबन से विश्वास घटता जा रहा है। वह दूसरों के श्रम से कमाई पूंजी पर अपना अधिकार जमाना चाहता है, जो उसकी दुर्नीति होती है। दुर्नीति कभी फलीभूत नहीं होती, लेकिन फलीभूत व्यक्ति जब दुर्नीति के शिकंजे में आ जाता है, तो उसका पतन अवश्यम्भावी हो जाता है। दुर्नीति सभी तरह की प्रगतियों में अवरोधक बनती है। इससे व्यक्ति ना तो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हो पाता है, ना ही धािर्मक दृष्टि से प्रगतिशील बन पाता है। दुर्नीति पाप के घडे के समान होती है, जो एक ना एक दिन फूटता ही है।

संतुलित गति से मिलती मंजिल

आचार्यश्री ने कहा कि श्रम और स्वावलंबन का जीवन, उत्पन्न गत्यावरोध को दूर करता है और नए गत्यावरोध भी पैदा नहीं होने देता। यह भले ही दिखने में छोटा है, लेकिन परिणाम में अत्यंत सुखदायी होता है। उन्मार्ग में जाना जीवन का सबसे बडा गत्यावरोध है। उन्मार्ग से सन्मार्ग की और बढ़ना गति है। संतुलित गति में चलने वाला व्यक्ति एक दिन मंजिल पर पहुंच जाता है। गंतव्य की दिशा सही होने पर ही व्यक्ति लक्ष्य को प्राप्त करता है। यह तय है कि जो सही दिशा में गतिशील होता है। उसके लिए प्रगति का पथ निर्बाध होता है। जो स्वयं में गतिशील होते है, वे ही दूसरों को गति में सहयोग प्रदान कर सकते है। रूका और थका व्यक्ति ना स्वयं कही पहुंचता है और ना ही पहुंचने वालो का पथ प्रदर्शक बन सकता है।

कर्तव्य ही बनाता है महान व्यक्ति को

आचार्यश्री ने कहा कि भारत के ऋषि-मुनियों ने चरैवेति-चरैवेति का महासूत्र प्रदान किया है। जब तक जिदंगी है, तब तक व्यक्ति को चलते ही रहना चाहिए। चलना जीवन है, रुकना मृत्यु है। यह भी सत्य है, जिसमें चलने की शक्ति होती है, उसे ही सहयोग दिया जा सकता है। कई बार दृष्टिकोण सही होता है, फिर भी संकल्प और पुरूषार्थ के मजबूत चरण नहीं हो तो चलना मुश्किल हो जाता है। श्रमशील व्यक्ति कर्मठ होते है, वे छोटी-मोटी बाधाओं के सामने झुकते नहीं है। झूकना और रूकना उनके जीवन शब्दकोश में होता ही नहीं है। जो व्यक्ति अपने जीवन में कभी निराश नहीं होता। कठिन से कठिन समय में अपना हौंसला रखता है। ऐसी परिस्थितियों को हंसते-हंसते पार कर लेता है, उसकी गति कभी रूकती नही है। वह निष्ठावान होकर समर्पण भाव से अपना कर्तव्य करता जाता है। वह कर्तव्य ही उसे महान बनाता हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *