ज़िन्दगी अब-43 : मत आइएगा : आशीष दशोत्तर
मत आइएगा
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🔲 आशीष दशोत्तर
उनकी उंगलियां धीरे-धीरे मोबाइल पर चल रही थी। वे भारी मन से किसी संदेश को अग्रेषित कर रहे थे। पूछा तो उदास होकर कहने लगे, आज एक ऐसा संदेश अपने मिलने वालों को भेजना पड़ रहा है, जिसे भेजने की न तो मेरी तमन्ना थी और न ही कभी ऐसा सोचा था।
मैंने कहा, जब किसी संदेश को भेजने में इतना ही दु:ख हो रहा है तो उसे भेज ही क्यों रहे हैं?
वे कहने लगे, मजबूरी है। वक्त का तकाज़ा है और इस समय की ज़रूरत भी। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि आखिर ऐसा कौन सा संदेश हो सकता है, जो अपने ही लोगों को भेजने में तकलीफ़ दे रहा है फिर भी भेजना पड़ रहा है।
उनसे पूछा तो कहने लगे, आज मैं अपने मिलने वालों को यह संदेश भेज रहा हूं कि मेरे घर अभी मत आइएगा। मैंने कहा, यह तो आपका अधिकार है। आप जिसे चाहे अपने घर बुलाएं या न बुलाएं। इसमें उदास होने की क्या ज़रूरत है।
वे कहने लगे, मैं तो बुलाना चाहता हूं ,मगर यह समय ही ऐसा है जो किसी को अपने घर बुलाने की इजाज़त नहीं दे रहा है। मैंने कहा, वह संदेश बताइए तो सही, जो आप बड़े भारी मन से अपने लोगों को भेज रहे हैं।
वे बताने लगे, हर साल यह समय ऐसा होता है जब मेरे कई रिश्तेदार इधर से गुज़रते हैं। यहां आते हैं, घर पर ठहरते हैं। जब चातुर्मास के दौरान कोई संत यहां पर या आसपास के क्षेत्र में विराजते हैं तो उनके दर्शनार्थ कई रिश्तेदारों का आना होता रहता है। कई बार तो स्थिति यह होती है कि प्रतिदिन कोई न कोई मेहमान घर में मौजूद रहता है। मैं अपने उन सभी रिश्तेदारों को इसीलिए यह संदेश भेज रहा हूं कि इस बार आप अगर इधर से गुज़रें या शहर में भी आएं तो फोन पर ही चर्चा कर लें, हमारे घर न आएं।
वे कह रहे थे, ऐसा मैं इसलिए कर रहा हूं ताकि इस दौर में संक्रमण की आशंकाओं को निर्मूल किया जा सके। यह वक्त ऐसा है ,जब कोई मेहमान अपने घर में आता है तो अपनी चिंताओं से ज्यादा आस-पड़ोसियों को चिंता होने लगती है। सभी के मन में कई सारे सवाल उठने लगते हैं। बाहर से इनके यहां कौन आया है, कहां से आया है, कहीं अपने साथ संक्रमण लेकर तो नहीं आया। ऐसी स्थिति में लोग अपन से भी दूरियां बना लेते हैं। इस कारण सभी रिश्तेदारों को संदेश भेज क्षमा याचना भी कर रहा हूं। इस वक्त ने इतना मजबूर कर दिया है कि अपने ही लोगों को अपने ही घर आने से रोकना पड़ रहा है।
उनकी यह बात सुन ज़िंदगी के एक ऐसे स्याह पक्ष से सामना हुआ जिसकी कल्पना कभी की ही नहीं थी। व्यक्ति इतना मजबूर हो जाए और हालात में इतना घिर जाए कि उसे अपने घर किसी को आने से रोकना पड़े, अपने ही लोगों के सत्कार से मुंह फेरना पड़े, इससे बड़ी विडंबना क्या होगी। मगर इस दौर ने ऐसा स्याह पक्ष भी दिखला दिया, जिसे मिटा पाना शायद किसी की भी स्मृतियों के लिए नामुमकिन होगा।
🔲 आशीष दशोत्तर