ज़िंदगी अब-54 : प्रवासी-परदेसी : आशीष दशोत्तर
प्रवासी- परदेसी
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🔲 आशीष दशोत्तर
‘इतनी मुश्किल के काम में अपने साथ इस बच्चे को क्यों लाए ? इसे घर पर छोड़ कर आना था।’ जैसे ही उसे कहा उसने पलट कर जवाब दिया ‘साथ इसलिए नहीं लाया कि यह मेरी कोई मदद करें, बल्कि इसे यह बताने के लिए लाया हूं कि जीवन में अगर कुछ बनना है तो पढ़ना- लिखना ज़रूरी है वरना हमारी तरह मजदूरी ही करोगे।’
‘ मजदूर होना कोई श्राप है क्या? यह तो गर्व की बात है। अपनी मेहनत से कमाना और खाना।’ इस पर वह तत्काल बोल पड़ा, किसी दिन आप मजदूर बनकर देखो तो सही। एक दिन में ही आपको समझ में आ जाएगा कि मजदूर होना गर्व की बात है या जीवन का अभिशाप।’
मकान मालिक और उसके निर्माणाधीन मकान पर काम कर रहे मजदूर की इस बात ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया। बातचीत में मैं भी शामिल हो गया। उस मजदूर से कहा, इस बच्चे को अपने साथ लाए हो यह तो ठीक है ,ताकि यह भी अपने जीवन में पढ़ाई-लिखाई के महत्व को समझ सके और किसी अच्छे काम को अपनाए, लेकिन मजदूरी न करने के तुम्हारे तर्क को मैं नहीं समझ पा रहा हूं । मजदूर तो भाग्य निर्माता होता है। वही सबकी क़िस्मत बनाता है।’ वह कहने लगा ‘तभी तो उसकी किस्मत कभी नहीं बनती है।’
वह बातों से पढ़ा-लिखा लगा। पूछा तो बताने लगा कि वह हायर सेकेंडरी पास है। कोई काम न मिलने के कारण मजदूरी करने लगा। अब मजदूरी ही उसकी पहचान बन गई है। लेकिन यह पहचान भी कोई पहचान है ।कहने को हमारे लिए कई सारे काम खुले हैं, लेकिन काम है कहां? यहां काम नहीं मिलता है तो मजबूरी में बाहर जाना पड़ता है । बाहर जाते हैं तो हमें परदेसी मजदूर कहा जाता है।
जब बाहर काम नहीं मिलता है और वापस लौट कर अपने घर आते हैं तो यहां हमें प्रवासी मजदूर कहा जाता है । अब आप ही बताइए कि हम परदेसी और प्रवासी बनकर रह गए हैं। ऐसे में मजदूर होना श्राप नहीं है तो क्या है ?
उसकी बात सही थी । हमारे लब ख़ामोश थे। मगर उसकी बात जितनी खरी थी, उतनी ही विचार करने योग्य भी कि सभी का भाग्य निर्माण करने वाले ये मजदूर आज भी परदेसी और प्रवासी के बीच अपनी पहचान के लिए भटक रहे हैं।
🔲 आशीष दशोत्तर