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🔲 आशीष दशोत्तर

चार महीने बाद वे बच्चों को लेकर घर से निकले थे। हालांकि उनकी इच्छा नहीं थी , बच्चे भी ज़िद नहीं कर रहे थे ,मगर उनके मन में भी यह बात आ रही थी कि इतने समय से घर के घर में रहकर बच्चे बोर हो गए हैं। इसलिए इन्हें घर से बाहर थोड़ा घुमाना चाहिए।1591157474801
घर से कुछ ही दूरी पर स्थित एक धार्मिक स्थल पर वे बच्चों को लेकर पहुंचे।.अभी कुछ ही देर रुके होंगे कि पुलिस का सायरन सुनाई दिया। पुलिसकर्मी वहां आ कर सभी को घर जाने के लिए कह रहे थे । शाम का समय हो चुका था ,इसलिए उनका ऐसा कहना लाजमी था ।
वहां मौजूद सभी लोग धीरे-धीरे वहां से प्रस्थान करने लगे ।वे भी अपने बच्चों को लेकर वहां से चल दिए। उनके साथ कुछ और उनके ही जैसे लोग थे जो अपने परिवार अथवा बच्चों के साथ वहां आए थे । बच्चों की स्थिति बड़ी अजीब थी। वे घर से निकले भी लेकिन ठीक तरह घूम नहीं पाए। एक तरह से उनका घर से निकलना, न निकलना बराबर ही था।
वे अपने साथ चलते व्यक्ति से कहने लगे , इस लाकडाउन ने सबसे ज्यादा नुकसान इन बच्चों का किया है । दिन भर बाहर खेलने वाले बच्चे घर के घर में रहकर कैसे हो गए हैं। इस वक्त इनके घर में रहने के कारण जो इनके जीवन में परिवर्तन होगा उसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता। आप देखिएगा आने वाले समय में जब इस दौर की पीढ़ी जवान होगी तब उसके शारीरिक और मानसिक परिवर्तन में सामान्य रूप से काफी भिन्नता होगी।
साथ चलते हुए व्यक्ति ने उनकी बात में हां से हां मिलाते हुए कहा कि हमारा बच्चा पहले तो बाहर घूमने की हर वक्त ज़िद करता रहता था, लेकिन इस लाकड़ाऊन का दौर क्या आया वह यह ज़िद करना भी भूल गया है। आज भी हम उसे बड़ी मुश्किल से लेकर आए हैं।
उन दोनों की बात सुनकर महसूस हो रहा था कि बच्चों के जीवन पर इस बुरे दौर का जो असर पढ़ रहा है वह यकीनन इन बच्चों के विकास में बाधक होगा। दुनिया भर के विशेषज्ञ अपने-अपने शोध में इस बात को रेखांकित भी कर रहे हैं कि लॉक डाउन के दौर में बच्चों का जीवन सर्वाधिक प्रभावित हुआ है। संयुक्त राष्ट्र की इस संबंध में जारी की गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन के दौरान दुनियाभर के बच्चे सबसे पीड़ित हैं। ये सच है कि कोरोना वायरस का प्रभाव बच्चों में कम देखा गया है लेकिन इस महामारी से उपजे साइड इफेक्ट्स ने बच्चों को सीधे तौर पर प्रभावित किया है। कहा जा रहा है कि बड़ी संख्या में बच्चों पर इस महामारी के सामाजिक आर्थिक प्रभाव होंगे।
रिपोर्ट में कहा गया है कि इस महामारी का प्रभाव बच्चों पर असमान रूप से पड़ेगा। यानी अमीर देशों में इसका प्रभाव कम पड़ सकता है जबकि मध्यम और कम आय वाले देशों में इसका प्रभाव कहीं ज्यादा हो सकता है।
लॉकडाउन के दौरान ऐसे बच्चों के हिंसा का शिकार होने का रिस्क बढ़ गया है जो गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं या फिर शरणार्थी बस्तियों में रहते हैं। पहले से जिंदगी की मुश्किलों से जूझ रहे इन बच्चों के सामने न सिर्फ गरीबी संकट है कि बल्कि हिंसा उनकी जिंदगी पर स्थाई बुरा असर छोड़ सकती है।
यानी लाकड़ौन बेकसूर बच्चों को एक ऐसा दर्द दिया है जो इनके जीवन के साथ हमेशा जुड़ा रहेगा। चिंतन इस बात पर होना चाहिए कि इस बदलाव को फिर से स्वाभाविक रूप में लाने के लिए क्या किया जाए ,क्या किया जा सकता है। अफ़सोस इस बारे में सोचने का समय अभी किसी के पास नहीं है।
– आशीष दशोत्तर

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