🔲 नरेंद्र गौड़

आज के बाजारी युग में अनुपयोगी चीजों की कोई कीमत नहीं है। वह चाहे गाय हो, पत्नी या फिर जन्म देने वाली मां। लाभ हानि के समीकरण की महत्ता के आगे रिश्ते नातों की कोई अर्थव्यवस्था अब रही नहीं। उपभोक्तावादी समाज का आत्मकेंद्रित मनुष्य अपनी मक्कारी को लाचारी बताकर बेशर्मी भरी दलीलें पेश करता है। इन्हीं तमाम सामाजिक विसंगतियों को भोपाल निवासी मधु शुक्ला अपनी कविताओं के माध्यम से लगातार वाणी देती आ रही है।

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ये सारवादी परम्परा की अत्यंत सरल लेखिका है। उनके यहां भाषा अलंकारों और विचारों के बोझ तले कराहती हुई नजर नहीं आती। वे व्याख्यान रचने की कोई कोशिश नहीं करती। इनका मानना है कि यथा स्थिति पर चोंट किए बिना बेहतर कविता की रचना असंभव है।

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रसारण प्रकाशन

उत्तरप्रदेश के रायबरैली लालगंज में जन्मी मधु शुक्ला ने हिन्दी एवं संस्कृत साहित्य में एमए किया है। वे गीत, गजल के अलावा कहानी, समीक्षाएं तथा साहित्यिक आलेख भी लिखती रही हैं। देश की प्रायः सभी स्तरीय साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाओं का प्रकाशन होता रहा है। इसके अलावा आकाशवाणी एवं दूरदर्शन भोपाल से भी लगातार इनकी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है। इन्हें देश के अनेक राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय काव्य मंचों द्वारा रचना पाठ का अवसर दिया गया है। हिन्दी संस्थान लखनऊ, साहित्य अकादमी देहरादूर एवं साहित्य अकादमी भोपाल के मंचों से भी इन्होंने एकल काव्यपाठ एवं अपने आलेखों का वाचन किया है। इसके अलावा नवगीत के नए प्रतिमान, शब्दायन, गीत वसुधा, नवगीत का लोकधर्मी स्वरूप, नई सदी के नवगीत, समकालीन गीत कोष आदि नवगीत के प्रायः सभी उल्लेखनीय संग्रहों में सहभागिता रही है।

अनेक सम्मानों से विभूषित

यदि मधु शुक्ला की पुस्तकों की चर्चा की जाए तो वर्ष 2015 में प्रकाशित इनका गीत संग्रह ‘आहटें बदलते समय की‘ काफी लोकप्रिय हुआ है। इसी पुस्तक पर मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा वर्ष 2017 में इन्हें दुष्यंत कुमार सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। वर्ष 2012 में इन्हें नटवर गीत सम्मान मिल चुका है। वर्ष 2015 में शिव बहादुर सिंह भदौरिया स्मृति सम्मान, अभिनव कला परिषद भोपाल द्वारा वर्ष 2017 में शब्द शिल्पी सम्मान, निराला साहित्य संस्था डलमऊ (उ.प्र.) द्वारा मनोहरा देवी कवियत्री सम्मान वर्ष 2016 में मिल चुका है। इन दिनों आप भोपाल के शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में व्याख्याता के पद पर कार्यरत है।

मधु शुक्ला की कुछ रचनाएं :-

स्वप्न धानी लिख गया

झील के किस्से,समन्दर की कहानी लिख गया
एक बादलफिर नदी की जिन्दगानी लिख गया ।

उँगलियों से बूँद की, पानी में इक हलचल लिखी
मौन लहरों के सुरों में, थिरकती कलकल लिखी
टूटती दरिया की साँसों में रवानी लिख गया ।

तप्त धरती के ह्रदय के भाव अँकुराने लगे
थरथराते पात तन के अर्थ गहराने लगे
जर्द आँखों में धरा की स्वप्न धानी लिख गया

खोलकर खिड़की फुहारों का झकोरा आ गया
पत्र सोंधी गंध वाले द्वार पर सरका गया
भीगते मन में कई सुधियाँ सुहानी लिख गया।

डोर ले विश्वास की मन का पपीहा उड़ चला
ढाई आखर के सबद गाता कबीरा मुड़ चला
संग मेरे नाम के मीरा दिवानी लिख गया।

लिख गया युग के अधूरे प्रेम की कल्पित कथा
यक्षिणी की पीर, शापित यक्ष के मन की व्यथा
फिर कथानक में नये बाते पुरानी लिख गया।
फिर नये अंदाज में बातें पुरानी लिख गया

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चाय तो बहाना है

रिश्तों के बीच बुना
इक ताना बाना है
संग बैठ तुमसे बस
हँसना बतियाना है
चाय तो बहाना है ।

आ जाना यादों की
गिरहें फिर खोलेंगे
फीके इन लम्हों में
कुछ मिठास घोलेंगे
भर लेंगे रंग कई
साँझ के पियालों में
कलियाँ कुछ खुशबू की
साँसों में बो लेंगे
सोये इन सपनों को
नींद से जगाना है
राग नया गाना है ।

सिलसिले चलायेंगे
मेल -मुलाकातों के
दोहरायेंगे किस्से
पिछली बरसातों के
अन्तहीन चर्चे कुछ
मन के कुछ मौसम के
सौ -सौ मतलब होंगे
बेमतलब बातों के
रखना है याद किसे
किसे भूल जाना है
मन को समझाना है ।

चुस्की के साथ -साथ
आँखों में झाँकेंगे
चेहरे के मौसम का
तापमान नापेंगे
भाप की लकीरों में
बनती तहरीरों के
मिलकर हम अनबूझे
शब्द- शब्द बाचेंगे
आँख बचा दुनिया से
चार पल चुराना है
और गुजर जाना है ।
चाय तो बहाना है ।

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समय लेकिन चल रहा है

जिन्दगी ठहरी हुई है,
समय लेकिन चल रहा है ।

मौन, ये गुमसुम दिशायें
क्या न जाने सोचती हैं
रात दिन अपने सवालों
के ही उत्तर खोजती हैं
भटकती इन बियाबानो
में सुबह से शाम तक
प्यास की आकुल चिरैया
पंख अपने नोचती है
सफर है अब तक अधूरा
और सूरज ढल रहा है ।

खनकते सिक्के पलों के
हम खरचते जा रहे हैं
कीमती दिन कोडियों के
मोल बिकते जा रहे हैं
रह गये थे रेत से ,
दो चार दिन जो हाथ में
मुट्ठियों से वक्त की पल छिन
सरकते जा रहे हैं
उम्र के सोपान चढ़ते
बर्फ सा तन गल रहा है ।

मनचला शिशु भाग्य का
मुझसे अकारण रूठ जाता
देखती हूँ जिसमें खुद को
वही दर्पण टूट जाता
पकड़ती हूँ फिर वही
तिनका सहारे के लिये
भँवर में हर बार मेरे
हाथ से जो छूट जाता ।
नित नयी काया बदल कर
मोह का मृग छल रहा है ।

मौसमों में अब कहाँ वो रंग,
खुशबू ,ताजगी है
मन के रिश्तों में न दिखती
वो सहजता, सादगी है
खो गयी सुधियाँ सभी
इन अनुभवों की भीड़ में
रह गयी मन को कहाँ
अब किसी से नाराजगी है
गोद में विश्वास के ये वहम
कैसा पल रहा है ?

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हम जंगली बबूल हो गये

काँटे -काँटे देह हो गई,
रेशा-रेशा फूल हो गये ।
राजपथों ने ठुकराया तो
हम जंगली बबूल हो गये ।

किससे कहते पीड़ा मन की
क्यों मैंने वनवास चुना है
इच्छाओं को छोड़ तपोवन
ये कठोर उपवास चुना है
धारा के संग बह न सके तो
नदिया के दो कूल हो गये ।

अनचाहे उग आते भू पर
नहीं किसी ने रोपा मुझको
क्रूर समय ने सदा मरूथलों
के हाथों ही सौपा मुझको
ऐसे गये तराशे हर पल
पोर -पोर हम शूल हो गये ।

रहे सदा ही सावधान हम
मौसम की शातिर चालों से
इसीलिये हैं मुक्त अभी तक
छद्म हवाओं के जालों से
इस जग ने इतना सिखलाया
अनुभव के स्कूल हो गये ।

जब जब बढ़ती तपन ह्रदय की
खिलते फूल मखमली पीले
भरते एक हरापन मन में
रंग धूप के ये चटकीले
सुधियों ने जिसको दुलराया
ऐसी मीठी भूल हो गये ।

भूल सभी संताप ह्रदय के
रहे पथिक को छाँव लुटाते
साँझ लौटते विहगों के संग
गीत रहे जीवन के गाते
ढाल लिया खुद को कुछ ऐसा
हर युग के अनुकूल हो गये।

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