🔲 नरेंद्र गौड़

साहित्य सृजन एक उत्सव के समान है और भारतीय सौंदर्यबोध वस्तु के भौतिक स्वरूप से बढ़कर आंतरिक स्वरूप पर जोर देता है। संध्या कुलकर्णी के लेखन का उद्देश्य बाहरी रूप को साकार करना नहीं बल्कि आंतरिक महत्व को दर्शाना है। यह सीमाबद्ध संसार में शाश्वतता का प्रवेश है। संध्याजी के पास वह दृष्टि है जो परतों के भीतर झांक लेती है। यहां अपनी अभिव्यक्ति की सार्थकता के उपाय वह खुद ही खोज लेने में समर्थ है।

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इनका कहना है कि वर्तमान समय लेखन कार्य के लिए अत्यंत चुनौती भरा है। एक तरफ जहां दुनिया कोरोना महामारी का सामना कर रही है वहीं दूसरी तरफ लगातार बढ़ती हुई महंगाई, बेरोजगारी, आतंकवाद, बलात्कार जैसी घटनाएं भी लेखकीय कर्म को झिंझोड़े दे रही है।

रचनात्मकता की खूबी

संध्याजी का कहना है कि मनुष्य जन्मजात रचनाशील होता है। उसने सदा चुनौतियों का सामना किया है और आज भी उसकी यह यात्रा निरंतर जारी है। बहुमुखी प्रतिभा की धनि संध्याजी इन दिनों भोपाल में निवास कर रही हैं। वे कहानी, कविताएं लिखने के साथ ही कन्नड़ मातृभाषा होने की वजह से इस भाषा के विभिन्न रचनाकारों की कृतियों का हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी करती है।

प्रकाशन / प्रसारण

संध्याजी की रचनाओं का आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से समय समय पर प्रसारण होता रहा है। इनका एक काव्य संग्रह ‘खोज का तर्जुमा‘ हिन्दी साहित्य जगत में खासा चर्चित हुआ है। संध्याजी सादगी भरे जीवन को पसंद करती हैं और लेखन इनका स्वातंत्रय भाव भी है। इसमें वे किसी प्रकार का बहारी दबाव बर्दाश्त नहीं करती है। इनका मानना है कि बिना अतिरिक्त श्रम के सार्थक लेखन कार्य संभव नहीं है। लेखक के पास धैर्य, संयम और अंतुर्मखता होना अत्यंत आवश्यक है।

चुनिंदा कविताएं

कद

भीड़ में आगे जाते हुए
कमर और पैरों के बीच से
आगे निकल जाती थी
सायकल चलाते हुए पैडल का
इंतजार करते थे पैर बारी बारी
पिछली सीट पर रखा गेहूं का पीपा
चक्की तक ले जाते हुए खुद सीट तक
ही रही आती थी मैं
सायकल से कार तक कि यात्रा में
नजर नहीं आती थी
और मुझसे ज्यादा
दूसरों की परेशानी का सबब थी

कभी सायकल से , कार से
किसी खुली किताब के पन्ने से
कुर्सी से झांकते चेहरे से भी
उतनी ही और निकल आती थी

जितनी दिखाई देती थी
फकत उतनी ही नहीं थी मैं…..

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सजा

कतारों की चर्चा अब कम हो चली है
सब कुछ ऑनलाइन मंगा लिया जाता है
दो तीन दिन या कुछ कम-अधिक
किसी भी कतार की लंबाई से कम ही हैं …
फिर भी कतारें हैं कि हैं ….
चिठ्ठियों का आदान-प्रदान भी
गुजरे वक्त की बात ठहरी
कर ली जातीं हैं सारी बातें फोन पर
संदेश भी सुभीते का पर्याय हैं
सारे कस्टम किये जाने के अपने तरीकों के साथ

सब ओर बहुत सी आवाजें ही आवाजें हैं
पहचान ले , या पहचानी जा सके ऐसी कम ही हैं
नफा-नुकसान ,अपना कद , उपयोग
देख कर ही दबाए ध्छुए जाने हैं बटन
सारी प्रतिक्रियाएं इमोजी ही बता देते हैं
क्या जरूरी है मुस्कुराना भी
मितव्ययिता का यहाँ आसन्न संकट है

बच्चियों के पीड़ित होने की बात पर
जब आत्मरक्षा की बात हो या अस्त्र चलाने की
तो दोनों धुर , एक ही दिशा में परवाज करते हैं
कि , मानसिकता बदलने की बात हो तब भी
स्थगित विकल्प ही सुविधाजनक

तथ्य तो ये भी है
चुप रहने के लिए याद रहने वाला समय
अपनी मौत स्वयम ही मर जाता है
बोले जाने के लिए सिर्फ बोला जाना
नहीं बताता समय
सजा भी मुकर्रर कर देता है।

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शेष प्रश्न

मैं चाहती हूं
मानव का उसकी गरिमा में
जीवित रहना
लकीरों का सामान रहना शर्त न हो
हर लकीर की अपनी होने की वजह हो

सिर्फ पैसे कमाना न हो आजादी का अर्थ
उसे खर्च करने की आजादी का भी
अपना वजन हो

बच्चे को स्कूल न जाने का
बहाना न सोचना पड़े , उसे बंदिशें न बांधें
अवसाद का शिकार न हो पाए वो
जिन्दगी की बूंदें सौगात हों उसके लिए

कद हों , ऊंचे नीचे अनघड़ भी
लेकिन पदक्रम की कोई दीवार न हो
जब भी कोई पानी दे तो वो बस मीठा हो
उसमे द्वेष , विभेद की कड़वाहट न हो

जैसे होते है
जगह-जगह कई तरह के पेड़ , पौधे ,
और फूल खिले हुए , अपनी अपनी
विशेषताओं में संयुक्त
वैसे ही न हो दम्भ श्रेष्ठत्व का
पुरुष में , स्त्री में भी …

क्या कोई ऐसी जगह है ?

उसने बस इतना ही तो पूछा था
क्या चाहती हो तुम आखिर ?

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ध्वनि 1

ध्वनि की भाषा में शब्द नहीं थे
इसलिए समझ नहीं आती थी शायद
जब नहीं थे शब्द तब करती थी
ध्वनि ही ध्वनि से बात
और उनके अर्थ स्पर्श की लिपि में निहित थे
आंसुओं की बोली में गढ़े हुये

जैसे पखावज और हारमोनियम
बोलते हैं ध्रुपद में अपनी बात
तब आंसू गढ़ता है अपनी लिपी

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ध्वनि 2

जब झर नहीं पाता था दुःख
सिल सा धरा ह्रदय में कांपता था
चक्र करता था पूरे जन्म मृत्यु के
समय का आलाप लेता था अंगड़ाई
झर उठते थे राग-रागिनी

संध्या संजीवनी बिखेरती थी अपने रंग
भीतर समेटे रागिनी का अनंत..
झर जाता था साँझ तक दुःख

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ध्वनि 3

जब
घट रहा हो धरती पर पानी
कम हो रहा हो हरा
पेड़ों का बतियाना भी आपस में कम
मृत हो जाता हो उम्मीद का हरहराना भी
लय में बाँध लेती हूँ मुक्ति की प्यास

आलाप का होना
धरती पर की उम्मीद का
होना है……

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आवाज

हर आवाज की
अपनी चमक है बनक है
ओज है और है अस्तित्व

ये मदांध शक्ति में लींन
हाथो में थामे हुए निर्वात
का परचम कुचलते है
पैरो तले आवाज की
गति को ….

इन्हें पता नहीं
हर मद की होती है
अपनी अधोगति

चारो दिशाओ का होता है
अपना वजूद रंग और नाद
इन्हें भी एक पुरस्कार दो
जिसमें दिशाएं अपने वजूद
को बदल दे एक आवाज में
जो खेच लाये निर्वात
इनकी खोखली चालसे …

कि आवाज
इस जमीन का अंतिम
सत्य है ……

निर्वात में सुनाई नहीं देता इन्हें कुछ

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