गया साल

आज वक्त कुछ ठहरा है
या शीत से जमा है
साल पूरा सरक गया
बस एक दिन का बेरा है

पहले तो साल दर साल
दे जाते थे खट्टी-मीठी याद
इस बार ही का जाता साल
दे जा रहा अपनत्व और कड़वी -सी याद

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महामारी ने सबको साथ रखा
बच्चों को बुजुर्गों का साथ दिया
पर अज्ञात बीमारी ने असमय अपनों को छीन लिया

लाक डाउन कुछ ऐसा लगा
घरबार किसी का बंद हुआ
कोई वक्त और अर्थ का मारा
हजारों कि.मीटर सड़कें नाप गया

आंदोलन हक और हुकूक के
पर्दानशीनों को दहलीज लांघ लाए
कुछ असामाजिक तत्वों ने
घर फूंक लाशों के ढेर लगाए

सत्तनशीन नशे में चूर चंद
कानून बना देश के जज्बातों से खिलवाड़ कर रहे
पर जन किससे खुश होंगे उससे अनजान है

हर तरफ त्राहि-त्राहि मची रही
सड़कें भीग रही थीं पांवों से
रिसते छालों की मवाद से या
भूख-प्यास से मरती लाशो से

पटरियों पर रेल जन को ले नहीं गई
बल्कि पटरियों पर इंसानों को
सुला गई

फिर भी सत्ताधारी अपने-आप में मगन रहे
तेरे मेरे कर्म में उलझ ,लोगों को तिरस्कृत करते रहे

कुछ हमारे साथी धरती पर भगवान की शकल में आए
पीड़ा हर लोगों की ,उनको
रोटी,कपड़ा और घर मुहैया करवाए

डाक्टर,नर्स,अध्यापक,
स्वयंसेवी, फौज ने
अपनी-अपनी पूरी की जिम्मेदारी

मगर अभी और दंश हृदय
को दे रहा
अन्नदाता देश का फसल खेत में छोड़ कर
शीत की ठिठुरन में, घरद्वार
छोड़ सड़को पर अपने अधिकार के लिए बैठा हुआ

ये साल जाते-जाते कड़वी
यादें दे गया।

🔲 डॉ. नीलम कौर

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