धर्म संस्कृति अध्यात्म : श्रीमद् भगवत गीता संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी में : अध्याय 7 ज्ञान विज्ञान योग
श्रीमद् भगवत गीता -अध्याय 7 ज्ञान विज्ञान योग
हिन्दी पद्यानुवादक : साहित्यकार प्रोफेसर सी बी श्रीवास्तव विदग्ध
( विज्ञान सहित ज्ञान का विषय )
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥
श्री कृष्ण ने कहा-
मुझ में अपना मन रमा,मेरे आश्रय आन
पार्थ! मुझे पहचानने का सुन पूरा ज्ञान।।1।।
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन॥1॥
1. O Arjuna, hear how you shall without doubt know Me fully, with the mind intent on Me,
practising Yoga and taking refuge in Me!
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥
बतलाता विज्ञान सह तुझको वह सब ज्ञान
शेष न रहता जानना,उसे पूर्णतः जान।।2।।
भावार्थ : मैं तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्व ज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता॥2॥
2. I shall declare to thee in full this knowledge combined with direct realisation, after
knowing which nothing more here remains to be known.
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥
लोग सहस्त्रों में कोई करता एक प्रयत्न
मुझे जानता तत्वतः कोई किंतु नर रत्न।।3।।
भावार्थ : हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से अर्थात यथार्थ रूप से जानता है॥3॥
3. Among thousands of men, one perchance strives for perfection; even among those
successful strivers, only one perchance knows Me in essence.
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
भूमि,अनल ,जल वायु नभ अंहकार ,मन बुद्धि
इन आठों में है बॅटी,प्रकृति सकल संमृद्धि।।4।।
किन्तु पार्थ! यह प्रकृति जो कारक है संसार
मेरा जीवन रूप है सच में एक प्रकार।।5।।
भावार्थ : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार ये आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान॥4-5॥
4. Earth, water, fire, air, ether, mind, intellect and egoism-thus is My Nature divided
eightfold.
5. This is the inferior Prakriti, O mighty-armed (Arjuna)! Know thou as different from it My
higher Prakriti (Nature), the very life-element by which this world is upheld.
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥
भूलमात्र के सृजन का यही एक स्थान
स्व के जीवन मरण का कारण मुझ को जान।।6।।
भावार्थ : हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात् सम्पूर्ण जगत का मूल कारण हूँ॥6॥
6. Know that these two (My higher and lower Natures) are the womb of all beings. So, I am
the source and dissolution of the whole universe.
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
मुझसे बढकर कहीं कुछ और नही हे पार्थ
मुझ धागों में गुथा है मणि सा जग सर्वार्थ।।7।।
भावार्थ : हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है॥7॥
7. There is nothing whatsoever higher than Me, O Arjuna! All this is strung on Me as
clusters of gems on a string.
( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥
जल में रस, शशि सूर्य में प्रभा,वेद ओंकार
हूँ नभ में , मैं शब्द नर में पौरूष आधार।।8।।
भावार्थ : हे अर्जुन! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ॥8॥
8. I am the sapidity in water, O Arjuna! I am the light in the moon and the sun; I am the
syllable Om in all the Vedas, sound in ether, and virility in men.
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥
पृथ्वी की शुभ गंध हूँ, तेज सूर्य का जान
तपस्वियों की तपस्या ,सकल विश्व का प्राण।।9।।
भावार्थ : मैं पृथ्वी में पवित्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध से इस प्रसंग में इनके कारण रूप तन्मात्राओं का ग्रहण है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए उनके साथ पवित्र शब्द जोड़ा गया है।) गंध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ॥9॥
9. I am the sweet fragrance in earth and the brilliance in fire, the life in all beings; and I am
austerity in ascetics.
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥
बुद्धिमान की बुद्धि हूँ तेजस्वी का तेज
सब भूतों के जन्म हित, काम भाव अभिलेख।।10।।
भावार्थ : हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ॥10॥
10. Know Me, O Arjuna, as the eternal seed of all beings; I am the intelligence of the
intelligent; the splendour of the splendid objects am I!
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥
बलवानों में बल हूँ मैं,राग द्वेष प्रतिकूल
सब तत्वों में कामना धर्मभाव अनूकूल।।11।।
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूँ॥11॥
11. Of the strong, I am the strength devoid of desire and attachment, and in (all) beings, I am
the desire unopposed to Dharma, O Arjuna!
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥
राजस,तामस,सात्विक,सभी भाव यह जान
ये सब हैं मुझसे ही मैं उन रहित समान।।12।।
भावार्थ : और भी जो सत्त्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजो गुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू मुझसे ही होने वाले हैं ऐसा जान, परन्तु वास्तव में (गीता अ. 9 श्लोक 4-5 में देखना चाहिए) उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं॥12॥
12. Whatever being (and objects) that are pure, active and inert, know that they proceed
from Me. They are in Me, yet I am not in them.
( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
यह सारा संसार है तीन गुणों से युक्त
मै अविनाशी किन्तु नित उनसे परम विमुक्त।।13।।
भावार्थ : गुणों के कार्य रूप सात्त्विक, राजस और तामस- इन तीनों प्रकार के भावों से यह सारा संसार- प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है, इसीलिए इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता॥13॥
13. Deluded by these Natures (states or things) composed of the three qualities of Nature, all
this world does not know Me as distinct from them and immutable.
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
मेरी दैवी गुणमयी माया अपरम्पार
पर मुझसे जो मिल गये,वे सब होते पार।।14।।
भावार्थ : क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं॥14॥
14. Verily this divine illusion of Mine made up of the qualities (of Nature) is difficult to
cross over; those who take refuge in Me alone cross over this illusion.
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥
असुरभाव से नराधम,ज्ञान हीन बदनाम
पा सकते मुझको नहीं,उन्हें नही विश्राम।।15।
भावार्थ : माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते॥15॥
15. The evil-doers and the deluded, who are the lowest of men, do not seek Me; they whose
knowledge is destroyed by illusion follow the ways of demons.
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
चार तरह के लोग हैं,करते मेरी भक्ति
आर्त,ज्ञानी जिज्ञासु औ” जो चाहें धन शक्ति।।16।।
भावार्थ : हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए भजने वाला), आर्त (संकटनिवारण के लिए भजने वाला) जिज्ञासु (मेरे को यथार्थ रूप से जानने की इच्छा से भजने वाला) और ज्ञानी- ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं॥16॥
16. Four kinds of virtuous men worship Me, O Arjuna! They are the distressed, the seeker of
knowledge, the seeker of wealth, and the wise, O lord of the Bharatas!
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥
इनमें ज्ञानी मुझे प्रिय,एक निष्ठ समज्ञान
नित्य भक्त जन को भी मैं,प्रिय हूँ उन्ही समान।।17।।
भावार्थ : उनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है॥17॥
17. Of them, the wise, ever steadfast and devoted to the One, excels (is the best); for, I am
exceedingly dear to the wise and he is dear to Me.
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥
ये सब ही तो श्रेष्ठ हैं,ज्ञानी मेरे प्राण
योगी मेरे आसरे कर गति विधि अनुमान।।18।।
भावार्थ : ये सभी उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है क्योंकि वह मद्गत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है॥18॥
18. Noble indeed are all these; but I deem the wise man as My very Self; for, steadfast in
mind, he is established in Me alone as the supreme goal.
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
वासुदेव है प्रमुख ऐसा कर विश्वास
ज्ञानी पा लेता मुझे जनम जनम ले आश।।19।।
भावार्थ : बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्व ज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही हैं- इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है॥19॥
19. At the end of many births the wise man comes to Me, realising that all this is Vasudeva
(the innermost Self); such a great soul (Mahatma) is very hard to find.
( अन्य देवताओं की उपासना का विषय )
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥
भिन्न कामनायें लिये भटके ज्ञान विहीन
भिन्न देवों को पूजते अपनी प्रकृति अधीन।।20।।
भावार्थ : उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात पूजते हैं॥20॥
20. Those whose wisdom has been rent away by this or that desire, go to other gods,
following this or that rite, led by their own nature.
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥
जिस जिस में दिखती मुझे पावन प्रीति प्रगाढ
उस उस के प्रति जगाता उनमें भक्ति की बाढ।।21।।
भावार्थ : जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ॥21॥
21. Whatsoever form any devotee desires to worship with faith-that (same) faith of his I
make firm and unflinching.
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥
उस श्रद्धा से युक्त हो कर सब भेद समाप्त
करता मुझसे ही सकल कामनाओं को प्राप्त।।22।।
भावार्थ : वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त करता है॥22॥
22. Endowed with that faith, he engages in the worship of that (form), and from it he obtains
his desire, these being verily ordained by Me (alone).
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥
अल्प बुद्धि जन का रहा,अस्थिर सा विश्वास
देव भक्त पाते देव को मेरे , मेरे पास।।23।।
भावार्थ : परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥23॥
23. Verily the reward (fruit) that accrues to those men of small intelligence is finite. The
worshippers of the gods go to them, but My devotees come to Me.
( भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा )
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥
मुझ अविनाशी श्रेष्ठ का जिन्हें नहीं कुछ ज्ञान
उन्हीं मूढ की समझ में मेरी नहिं पहचान।।24।।
भावार्थ : बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्मकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं॥24॥
24. The foolish think of Me, the Unmanifest, as having manifestation, knowing not My
higher, immutable and most excellent nature.
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥
योगमाया से समावृत मैं मन को अज्ञात
मूढ नही है जानते मुझ अव्यक्त की बात।।25।।
भावार्थ : अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अर्थात मुझको जन्मने-मरने वाला समझता है॥25॥
25. I am not manifest to all (as I am), being veiled by the Yoga Maya. This deluded world
does not know Me, the unborn and imperishable.
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥
भूत भविष्य ओै” आज का सब कुछ मुझको ज्ञात
किन्तु सबों के मध्य हूँ मै प्रायः अज्ञात।।26।।
भावार्थ : हे अर्जुन! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता॥26॥
26. I know, O Arjuna, the beings of the past, the present and the future, but no one knows
Me.
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
राग द्वेष के जाल में फॅसा हुआ संसार
अर्जुन सुख दुख मोह से भ्रमित सतत बेकार।।27।।
भावार्थ : हे भरतवंशी अर्जुन! संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख-दुःखादि द्वंद्वरूप मोह से सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञता को प्राप्त हो रहे हैं॥27॥
27. By the delusion of the pairs of opposites arising from desire and aversion, O Bharata, all
beings are subject to delusion at birth, O Parantapa!
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥
किन्तु द्वन्द से मुक्त जो सदाचारी सज्ञान
नष्ट पाप हो मुझे ही जपते ईश्वर जान।।28।।
भावार्थ : परन्तु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग-द्वेषजनित द्वन्द्व रूप मोह से मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं॥28॥
28. But those men of virtuous deeds whose sins have come to an end, and who are freed
from the delusion of the pairs of opposites, worship Me, steadfast in their vows.
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥
जरा मरण से मुक्ति हित जो मेरे आधीन
करते यत्न वे बरतते अस्य ब्रम्ह में लीन।।29।।
भावार्थ : जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को, सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं॥29॥
29. Those who strive for liberation from old age and death, taking refuge in Me, realise in
full that Brahman, the whole knowledge of the Self and all action.
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥
जो अधिभूत अधिदेव औ” यज्ञ के विज्ञ
मृत्यु समय भी मुझे याद रखते है वे तेज्ञ।।30।।
भावार्थ : जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव सहित तथा अधियज्ञ सहित (सबका आत्मरूप) मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्तवाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं॥30॥
30. Those who know Me with the Adhibhuta (pertaining to the elements), the Adhidaiva
(pertaining to the gods), and Adhiyajna (pertaining to the sacrifice), know Me even at the time of
death, steadfast in mind.
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥7॥