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श्रीमद् भगवत गीता अध्याय-14 : गुणत्रय विभाग योग

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हिन्दी पद्यानुवादक : साहित्यकार प्रोफेसर सी बी श्रीवास्तव विदग्ध
श्री भगवान ने कहा-
(ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत् की उत्पत्ति)
श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥

तुम्हें बताता हॅू पुनः, ज्ञानों का भी ज्ञान
जिसे जानकर सिद्ध मुनि पा जाते निर्वाण।।1।।

भावार्थ : श्री भगवान बोले- ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं॥1॥
1. I will again declare (to thee) that supreme knowledge, the best of all knowledge, having
known which all the sages have gone to the supreme perfection after this life.
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥

इसे जानकर, मुझ सा हरि उन्हें मिला अविनाा
सर्ग-प्रलय के बंध से मुक्ति का प्रिय विवास।।2।।

भावार्थ : इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते॥2॥
2. They who, having taken refuge in this knowledge, attain to unity with Me, are neither
born at the time of creation nor are they disturbed at the time of dissolution.

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥

सदब्रहम (प्रकृति/योनि) में, मैं ही तो करता गभनिधान
जिससे पाता जन्म है जग में सकल जहान।।3।।

भावार्थ : हे अर्जुन! मेरी महत्ब्रह्मरूप मूल-प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूँ। उस जड़-चेतन के
संयोग से सब भूतों की उत्पति होती है॥3॥
3. My womb is the great Brahma; in that I place the germ; thence, O Arjuna, is the birth of all
beings!

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥

सभी योनि में मूर्तियाॅ होती जो उत्पन्न
उनकी सर्जक है प्रकृति, मैं हूॅ बीज समान।।4।।

भावार्थ : हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सबकी गर्भधारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ॥4॥
4. Whatever forms are produced, O Arjuna, in any womb whatsoever, the great Brahma is
their womb and I am the seed-giving father.

(सत्, रज, तम- तीनों गुणों का विषय)

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥

सत, रज,तम, गुण प्रकृति से ही लेते हैं जन्म
वही देह में आत्मा को रखते हैं बंद ।।5।।

भावार्थ : हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण -ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं॥5॥
5. Purity, passion and inertia-these qualities, O mighty-armed Arjuna, born of Nature,
bind fast in the body, the embodied, the indestructible!

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥

निर्मल सतगुण आत्मा को देता सत् ज्ञान
निरोगता, सद्बुद्धि, सुख हैं उसके ही दान।।6।।

भावार्थ : हे निष्पाप! उन तीनों गुणों में सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है, वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात उसके अभिमान से बाँधता है॥6॥
6. Of these, Sattwa, which from its stainlessness is luminous and healthy, binds by
attachment to knowledge and to happiness, O sinless one!

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥

रज गुण करता राग का भाव सहज उत्पन्न
तृष्णा औं आस वित्त को करता है सम्पन्न।।7।।

भावार्थ : हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों और उनके फल के सम्बन्ध में बाँधता है॥7॥
7. Know thou Rajas to be of the nature of passion, the source of thirst (for sensual
enjoyment) and attachment; it binds fast, O Arjuna, the embodied one by attachment to action!

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥

तमगुण रचता देह में प्रबल मोह का जाल
जो अज्ञान, प्रमाद में जीव को देता डाल ।।8।।

भावार्थ : हे अर्जुन! सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को प्रमाद (इंद्रियों और अंतःकरण की व्यर्थ चेष्टाओं का नाम प्रमाद है), आलस्य (कर्तव्य कर्म में अप्रवृत्तिरूप निरुद्यमता का नाम आलस्य है) और निद्रा द्वारा बाँधता है॥8॥
8. But know thou Tamas to be born of ignorance, deluding all embodied beings; it binds fast,
O Arjuna, by heedlessness, sleep and indolence!

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥

सतगुण प्राणी को सुखद, रजगुण कर्म में युक्त
तमगुण ढकता ज्ञान को, कर प्रमाद में सिक्त ।।9।।

भावार्थ : हे अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढँककर प्रमाद में भी लगाता है॥9॥
9. Sattwa attaches to happiness, Rajas to action, O Arjuna, while Tamas, shrouding
knowledge, attaches to heedlessness only!

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥

सतगुण होता है सजग,रज औं तम को जीत
सत तम को जीत रज, सत, रज को तम जीत।।10।।

भावार्थ : हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है अर्थात बढ़ता है॥10॥
10. Now Sattwa prevails, O Arjuna, having overpowered Rajas and Tamas; now Rajas,
having overpowered Sattwa and Tamas; and now Tamas, having overpowered Sattwa and Rajas!

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सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥

सब इन्द्रिय में, देह की, अब हो ज्ञान प्रकाश
तब जानों कि सतो गुण का है हुआ विकास।।11।।

भावार्थ : जिस समय इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है॥11॥
11. When, through every gate (sense) in this body, the wisdom-light shines, then it may be
known that Sattwa is predominant.

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥

लोभ, लगन, कर्मेच्छा, कुछ पाने की चाह
बढती है, जब रजोगुण का हो उचित प्रवाह ।।12।।

भावार्थ : हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशान्ति और विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं॥12॥
12. Greed, activity, the undertaking of actions, restlessness, longing-these arise when
Rajas is predominant, O Arjuna!

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥

उदासीनता, अप्रवृत्ति मोह व बढा प्रमाद
तमोगुण की ही वृद्धि से बढ तो है पार्थ।।13।।

भावार्थ : हे अर्जुन! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इंन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियाँ – ये सब ही उत्पन्न होते हैं॥13॥
13. Darkness, inertness, heedlessness and delusion-these arise when Tamas is
predominant, O Arjuna!

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥

सतोगुणों की संवृद्धि पर यदि कोई तजता देह
तो वह उत्तम प्राणियों के जाता है गेहं।।14।।

भावार्थ : जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है॥14॥
14. If the embodied one meets with death when Sattwa has become predominant, then he
attains to the spotless worlds of the knowers of the Highest.

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥

रजोगुणो की वृद्धि पर कर्म संगी की प्राप्ति
तमो गुणो के काले में मूढ योनि संप्राप्ति ।।15।।

भावार्थ : रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है॥15॥
15. Meeting death in Rajas, he is born among those who are attached to action; and dying in
Tamas, he is born in the womb of the senseless.

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥

सात्विक कर्मो का है फल कहते सुखद महान
राजस का फल दुख तािा तमस का फल अज्ञान ।।16।

भावार्थ : श्रेष्ठ कर्म का तो सात्त्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है॥16॥
16. The fruit of good action, they say, is Sattwic and pure; the fruit of Rajas is pain, and
ignorance is the fruit of Tamas.

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥

सत से होता ज्ञान है, रज से लेाभ निदान
तम से मोह, प्रमाद है, औं बढता अज्ञान।।17।।

भावार्थ : सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निःसन्देह लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद (इसी अध्याय के श्लोक 13 में देखना चाहिए) और मोह (इसी अध्याय के श्लोक 13 में देखना चाहिए।) उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है॥17॥
17. From Sattwa arises knowledge, and greed from Rajas; heedlessness and delusion arise
from Tamas, and ignorance also.

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥

सतोगुणी की उच्च गति, रजोगुणी की मध्य
धृवित वृतित क तामसी, अधोगति बीच विरूद्ध ।।18।।

भावार्थ : सत्त्वगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं॥18॥
18. Those who are seated in Sattwa proceed upwards; the Rajasic dwell in the middle; and
the Tamasic, abiding in the function of the lowest Guna, go downwards.

(भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण)

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥

कोई न कर्ता अन्य कोई इन्हीं गुणो के सिवाय
ऐसा जो जब समझता आता मेरे भाव ।।19।।

भावार्थ : जिस समय दृष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है॥19॥
19. When the seer beholds no agent other than the Gunas, knowing that which is higher than
them, he attains to My Being.

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गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥

देह जनित तीनों गुणो से उपर उठ प्राण
जन्म-मृत्यु दुखजस सेपा सकता निर्वाण।।20।।

भावार्थ : यह पुरुष शरीर की (बुद्धि, अहंकार और मन तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच भूत, पाँच इन्द्रियों के विषय- इस प्रकार इन तेईस तत्त्वों का पिण्ड रूप यह स्थूल शरीर प्रकृति से उत्पन्न होने वाले गुणों का ही कार्य है, इसलिए इन तीनों गुणों को इसी की उत्पत्ति का कारण कहा है) उत्पत्ति के कारणरूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है॥20॥

20. The embodied one, having crossed beyond these three Gunas out of which the body is
evolved, is freed from birth, death, decay and pain, and attains to immortality.

अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥

अर्जुन ने पूछा-

तीनों गुणो से परे जो उसकी क्या पहचान
गुणातीत हो सकने का भगवन क्या है ज्ञान ।।21।।

भावार्थ : अर्जुन बोले- इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है तथा हे प्रभो! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है?॥21॥
21. What are the marks of him who has crossed over the three qualities, O Lord? What is his
conduct and how does he go beyond these three qualities?

श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥

भगवान ने कहा-
सत,रज,तम गुण किसी से जिसे न दुःख न द्वेष
होने न होने से भी जिसे न कोई कलेश।।22।।

भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! जो पुरुष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश (अन्तःकरण और इन्द्रियादि को आलस्य का अभाव होकर जो एक प्रकार की चेतनता होती है, उसका नाम प्रकाश है) को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह (निद्रा और आलस्य आदि की बहुलता से अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतन शक्ति के लय होने को यहाँ मोह नाम से समझना चाहिए) को भी न तो प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है। (जो पुरुष एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही नित्य, एकीभाव से स्थित हुआ इस त्रिगुणमयी माया के प्रपंच रूप संसार से सर्वथा अतीत हो गया है, उस गुणातीत पुरुष के अभिमानरहित अन्तःकरण में तीनों गुणों के कार्यरूप प्रकाश, प्रवृत्ति और मोहादि वृत्तियों के प्रकट होने और न होने पर किसी काल में भी इच्छा-द्वेष आदि विकार नहीं होते हैं, यही उसके गुणों से अतीत होने के प्रधान लक्षण है)॥22॥

22. Light, activity and delusion,-when they are present, O Arjuna, he hates not, nor does
he long for them when they are absent!

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥

किसी भी स्थिति में कोई खुाी न दुख का बोध
इनके आवागमन का कहीं न कोई विरोध ।।23।।

भावार्थ : जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते (त्रिगुणमयी माया से उत्पन्न हुए अन्तःकरण सहित इन्द्रियों का अपने-अपने
विषयों में विचरना ही गुणों का गुणों में बरतना है) हैं- ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता॥23॥

23. He who, seated like one unconcerned, is not moved by the qualities, and who, knowing
that the qualities are active, is self-centred and moves not,

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥

सुख दुख को सम मानता, मिट्टी स्वर्ण समान
प्रिय अप्रिय में तुल्यता, निंदा स्तुति समान।।24।।

भावार्थ : जो निरन्तर आत्म भाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है॥24॥
24. Alike in pleasure and pain, who dwells in the Self, to whom a clod of earth, stone and
gold are alike, to whom the dear and the unfriendly are alike, firm, the same in censure and praise,

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते ॥

मानापमान औं मिच-रिपु जिसको सदा समान
कार्य करे निष्काम तो त्रिगुणातीत उसे जान।।25।।

भावार्थ : जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है॥25॥
25. The same in honour and dishonour, the same to friend and foe, abandoning all
undertakings-he is said to have crossed the qualities.

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्येतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥

अचल भक्ति रस जो सदा करता मेरा ध्यान
वह ही है गुणातीत सच होता ब्रह्म समान।।26।।

भावार्थ : और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्ति योग (केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर वासुदेव भगवान को ही अपना स्वामी मानता हुआ, स्वार्थ और अभिमान को त्याग कर श्रद्धा और भाव सहित परम प्रेम से निरन्तर चिन्तन करने को अव्यभिचारी भक्तियोग कहते हैं) द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भलीभाँति लाँघकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त
होने के लिए योग्य बन जाता है॥26॥

26. And he who serves Me with unswerving devotion, he, crossing beyond the qualities, is
fit for becoming Brahman.

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥

शावत धम सदैव सुख की तू प्रतिष्ठत जान
अपर औं अचयय ब्रह्म का मैं हू सुख स्थान ।।27।।

भावार्थ : क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखण्ड एकरस आनन्द का आश्रय मैं हूँ॥27॥
27. For I am the abode of Brahman, the immortal and the immutable, of everlasting Dharma
and of absolute bliss .

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नामचतुर्दशोऽध्यायः॥14॥

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