धर्म का मर्म समझाते भगतसिंह
🔲 आशीष दशोत्तर
आज भगतसिंह के बारे में जानना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि न सिर्फ धर्म बल्कि जीवन के कई मूल्यों को किसी न किसी विचारधारा के चैखटे में मढने की कोशिश की जा रही है। इतना ही नहीं भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों को भी एकपक्षीय नज़र से देखने और प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसे में धर्म को समझना हो तो हमें भगतसिंह के करीब जाना होगा और समझना होगा कि वे कितने स्पष्ट और मानवतावादी विचारधारा के संपोषक थे। भगतसिंह धर्म को लेकर बहुत अधिक सतर्क एवं सजग थे। सामान्यतः उनके बारे में यह सोचा जाता है कि वे घोर नास्तिक थे। मग़र यह सच होते हुए भी सच नहीं है। सच इसलिए कि स्वयं भगतसिंह ने खुद को नास्तिक घोषित किया है और असत्य इसलिए कि वे धर्म के उस रूप में नफ़रत करते थे जो मनुष्य को अकर्मण्य बनाता है। भगतसिंह धर्म के मामले में जैसे थे वैसे ही दिखना भी चाहते थे। जब वे स्वयं को रोमांटिक आदर्शवादी, क्रांतिकारी मानते थे तब उन्होंने धर्म को न केवल देखा बल्कि उसे महसूस भी किया। भगतसिंह के पिता आर्यसामजी थे इस नाते उनमें भी धार्मिक संस्कार थे। उन्होंने कहा भी है। एक आर्यसमाजी जो कुछ भी हो, धर्म विमुख नहीं हो सकता है।’’ इस लिहाज से वे स्वयं भी धर्म के मर्म को समझने की कोशिश में थे। अध्ययन के दौरान उन्होंने विद्यालय में गायत्री मंत्र का जाप नियमानुसार किया।
जब वे क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए तो उन्होंने यह महसूस किया कि धर्म को अफीम मानने वाले कम्युनिस्ट भी धर्म के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार रखते थे। ये लोग धर्म का विरोध तो करते थे मग़र धर्म के प्रति निष्ठा भी रखते थे। जब उन्होंने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों से पूजा-पाठ करने का परामर्श लिया तो उन्हें कहा गया, समय हो तो कर लिया करो। सचिन्द्रनाथ सान्याल जैसे कम्युनिस्ट तो स्वयं पूजा पाठ करते थे। भगतसिंह ने लिखा भी है, ‘‘मैं क्रांतिकारी पार्टी से जुड़ा। वहाँ पर जैसे पहले नेता से मेरा सम्पर्क हुआ, वो तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठपूर्वक पूछते रहने पर वो कहते, जब इच्छा हो तब पूजा कर लिया करों। यह नास्तिकता है, जिसमें इस विश्वास को अपनाने के साहस का अभाव है। दूसरे नेता जिनके मैं सम्पर्क में आया वो पक्के श्रद्वालु थे। उनका नाम बता दूँ, आरदणीय कामरेड सचिन्द्रनाथ सान्याल, जो कि आजकल काकोरी षड़यंत्र केस के सिलसिले में आजीवन कारावास भोग रहे हैं। उनकी अकेली प्रसिद्व पुस्तक ‘बन्दी जीवन’ के पहले पेज से ही ईश्वर की महिमा का जोर-शोर से गान है।’’
इस दो तरफा व्यवहार से भगतसिंह को नफ़रत सी हो गई और उन्होंने धर्म को न सिर्फ नकारा बल्कि ईश्वर के अस्तित्व से भी इंकार किया। उनका यह विरोध खुद को श्रेष्ठ या अलग साबित करने के लिए नहीं था। उन्हें जब यह अहसास हुआ कि उनके साथी उनके इस नास्तिक स्वरूप के बारे में कुछ अलग विचार रखते हैं तो उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वे न तो गर्वित हैं और न ही आत्ममुग्ध। वे स्वयं को नास्तिक बताते हैं तो इसलिए कि वे यह महसूस करते हैं कि इसमें ही जीवन का सार है। उन्हीं के शब्दों में, ‘‘मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह अहंकार नहीं है जिसने कि मुझे नास्तिकता के सिद्धान्त को ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। मैं न तो एक प्रतिद्वंद्वी हूँ न ही एक अवतार और न ही स्वयं परमात्मा। एक बात निश्चित है, यह अहंकार नहीं है जो मुझे इस भाँति सोचने की ओर ले गया। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था जब मैं एक अज्ञात नौजवान था। जिसके अस्तित्व के बारे में मेरे दोस्तों को कुछ भी पता न था। कम से कम एक काॅलेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अंहकार को नहीं पाल-पोस सकता जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाए। यद्यपि में कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ को मैं अच्छा नहीं लगता था, पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का तो कोई मौका ही न मिला सका। ’’
भगतसिंह सिर्फ हिन्दू धर्म के बारे में ही ऐसे विचार रखते हों और दूसरे धर्म के प्रति प्रेम रखते हों ऐसा नहीं है। यह आज के वामपंथियों के लिए एक ध्यान देने की बात है कि जिस भगतसिंह को वे कम्युनिस्ट या कम्युनिस्ट होने के करीब बताते नहीं थकते उन्हीं भगतसिंह ने कभी किसी धर्म का विरोध इसलिए नहीं किया कि किसी अन्य धर्म के लोगों का पक्ष लिया जा सके। या उनकी नज़र में किसी धर्म विशेष का विरोध ही धर्म निरपेक्षता के लिए आवश्यक नहीं था और किसी धर्म की गलतियों को नजर अंदाज कर देना इसलिए आवश्यक नहीं था क्योंकि वह उन्हें धर्मनिरपेक्ष साबित कर देता। हालांकि उस वक्त धर्म के प्रति वामपंथी नज़रिया यह था भी नहीं और सभी धर्मो को समान नज़रों से उस वक्त कम्युनिस्टों द्वारा देखा जाता था। यह विकृति तो बाद में आई। भगतसिंह धर्म का विरोध करते हुए हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई सभी धर्मो के लोगों को कटघरे में खड़ा करते रहे। उन्होंने कहा, ‘‘विभिन्न धार्मिक मतो के मूलतत्व में ही हमको इतना अंतर मिलता है जो कभी-कभी तो वैमनस्य तथा झगड़ो का रूप ले लेता है। न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है बल्कि प्रत्येक गोलार्द्ध के अपने मतों में आपस में अंतर है। पूर्व के धर्मो में, इस्लाम तथा हिन्दू धर्मो उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग है जिसमें स्वयं आर्य समाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाये जाते हैं।’’ पूर्वजन्म सम्बन्धी व्याख्या करते हुए भगतसिंह ने कहा था, ‘‘हिन्दू दर्शन के पास तो अभी और तर्क होंगे। मुसलमानों और ईसाईयों। मैं तुमसे पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है? तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोश व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मो का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व की उत्पत्ति के लिए छह दिन तक क्यों परिश्रम, किया और प्रत्येक दिन क्यों कहता है- कि सब ठीक है। बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह यह कहने का साहस करता हैं, सब ठीक है।’’
भगतसिंह तेईस वर्ष की आयु के ऐसे युवक थे जिनमें धर्म को लेकर एक तरह का आक्रोश सहज था। ऐसा आक्रोश इस आयु वर्ग के युवाओं में कई विषयों पर होता है। मग़र इस तरह के आक्रोश के प्रति वे कितना न्याय कर पाते हैं ? यह उस दौर के युवाओं में भी था। उस वक्त के युवा भी धर्म और आडम्बरों को लेकर आक्रोषित रहते थे मग़र जब मुसीबत आती तो वे धर्म का ही गुणगान करने लगते। भगतसिंह स्वयं अपने साथियों की इस पोल को खोलते हुए कहते हैं,‘‘ ईष्वर के प्रति अविश्वस का भाव क्रांतिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के प्रसिद्ध सभी चार शहीदों ने अपने अंतिम दिन भजन-प्रार्थना में गुज़ारे थे। रामप्रसाद बिस्मिल एक रूढ़िवादी आर्यसमाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद के अपने विस्तृत अध्ययन के बावजूद, राजेन्द्र लाहिड़ी उपनिशदों एवं गीत के ष्लोको के उच्चारण की अपनी अभिलाशा को दबा न सकें। मैंने उन सब में सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, ‘‘दर्षन षास्त्र मनुश्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है।’’ वह भी अजीवन निर्वाेसन की सजा भोग रहा है परंतु उसने भी ईष्वर के अस्तित्व को न कराने की कभी हिम्मत नहीं की।’’
वे स्वयं जिस धर्म से आते थे उस सिख धर्म के प्रति भी उनका वही नज़रिया रहा। भगतसिंह ने प्रारंभ में धार्मिक परम्पराओं का पालन करते हुए जिन केषों को बढ़ाया था बाद में उन्हें कटवा लिया। यह असली भगतसिंह बनने की षुरूआत थी। जब युवा अपनी परिस्थितियों अपने परिवेष, अपनी परम्पराओं और पारम्परिक मूल्यों से विद्रोह करता है, तो यह विद्रोह क्षणिक नहीं होता। उसे पता होता है कि इस विद्रोह का खामियाजा उसे भुगतना ही होगा। भगतसिंह अध्ययन के जरिये स्वयं को इतना परिपक्व बना चुके थे कि उनमें हर कुतर्क का जवाब देने की ताकत थी।
(लेखक ने भगतसिंह की पत्रकारिता पर पुस्तक ‘समर में शब्द‘ लिखी है।)
🔲 12/2,कोमल नगर, रतलाम
मो. 9827084966