यूं फागुन ढल रहा है यहां ‘फाॅग’ में
आशीष दशोत्तर
बदलते समय की बदलती व्यथाएं, कहीं गुम हुई है पुरानी कथाएं, लो फागुन यहां ‘फाॅग‘ में कसमसाए, समय अब नई शक्ल में ढल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
दहकते पलाशों की बातें कहां हैं, संजोती जो अरमान रातें कहां हैं, कहीं चंग-ढोलों की थापें कहां हैं , यहां प्रेम उत्सव कहां चल रहा है? यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
वो उत्सव की रौनक कहीं रह गई है, बदलते समय की कथा कह गई है, इमारत मुहब्बत की अब ढह गई है, समय हाथ अपने यहां मल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
कपोलों पे टिपकी लगाना है काफी, सभी को ये चेहरा बताना है काफी, छवि ये ही ‘शेयर‘ कराना है काफी, पड़ोसन को ऐसे जलाना है काफी, कहीं तीर चलता ,कहीं चल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
इधर भी है जाना,उधर भी है जाना, सभी से हैं रिश्ते बराबर निभाना, कलेवर बदलकर सदा पेश आना, सभी फोटुओं में हमीं को है छाना, कोई ख़्वाब आंखों में फिर पल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
न दिल में उमंगें न चेहरे पे रौनक, न सांसों में सांसें नहीं दिल में धकधक, ये कैसी हुई फाग उत्सव की लकदक, जिसे देखिए इसमें वो ढल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
कहीं भी मिलन की नहीं आस कोई, पिया से मिलन की नहीं प्यास कोई, जुदाई,मिलन है न वनवास कोई, यहां जो भी जैसा है सब चल रहा है, यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
कहीं मस्तियों की झलक देख लेते, कहीं गायकी में खनक देख लेते, फलक पर वो रंगे-धनक देख लेते, सुनहरा जो बीता हुआ कल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
कहां वे मुहल्ले, कहां है वो बस्ती, जहां पर बसी थी वो फागुन की मस्ती, हुई हम पे हावी है फैशनपरस्ती, यहां हाथ फागुन स्वयं मल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
न झिड़की न ताने, नहीं वे फ़साने, कहीं गुम हुए हैं वे ज़िन्दा तराने, किसे याद आते हैं दिन वे पुराने, समय जैसे-तैसे यहां टल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
किसे क्या बताएं, किसे क्या दिखाएं, व्यथा खुद की आओ स्वयं को सुनाएं, नज़र से नज़र अपनी खुद ही मिलाएं, नहीं प्रश्न का अब कोई हल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
बदल दे ये झूठे फ़साने यहां जो, सुनाए पुराने वो गाने यहां जो, दिलों से मिटाए बहाने यहां जो, कहां अब किसी में भी वो बल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
नहीं टोलियां हैं नहीं हैं वो टुल्लर, नहीं बैलगाड़ी नहीं है वो खच्चर, किसी को किसी से न चलना है बचकर, कहां सोचने को भी इक पल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
बिखेरें चलो रंग कोई तो ऐसा, कि जिसमें अहम हो, न ओहदा, न पैसा, मैं जैसा हूं , तू भी तो हो जाए वैसा, भुला दें जो चक्कर यहां चल रहा है। यूं फागुन यहां फाॅग में ढल रहा है।
आशीष दशोत्तर
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