क़लम से आम आदमी की आवाज़ को किया बुलंद उन्होंने

🔲 आशीष दशोत्तर

हिंदी साहित्य में कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का स्थान अद्वितीय है ।उन्होंने अपनी क़लम से आम आदमी की आवाज़ को बुलंद किया और अपनी कहानियों और उपन्यास के जरिए सामाजिक विसंगतियों का विशद वर्णन किया।

प्रसंग (31 जुलाई) मुंशी प्रेमचंद जयंती

इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विचार करें तो हम पाते हैं कि मुंशी जी ने संयम, सादगी, सहनशीलता, परहित और परमार्थ का जो संसार रचा उसमें उनके समकालीन ही नही बल्कि आज तक समस्त प्रशंसक एवं अनुयायी उनके मुरीद बने हुए हैं। मुंशी प्रेमचंद ने अपनी क़लम से समाज के उन लोगों की आवाज़ को बुलन्द किया जो सदियों से शोषित और दमित थे। जिनके जीवन में कभी कोई प्रकाश नहीं आने दिया गया था और जो समाज रीति-रिवाजों और कुसंस्कारों के जाल में उलझा हुआ था उसकी पीड़ा को उभारते हुए उसे संबल प्रदान किया। अपने विपुल लेखन में मुंशी प्रेमचंद ने साधारण जीवन का ताना-बाना बुना। जिस संसार में वे रचे-बसे थे उसी को उन्होंने अपने रचना संसार में स्थान दिया। यह किसी भी रचनाकार की ईमानदारी है कि वह जैसा जिये वैसा ही कहे और संसार को वैसा करने के लिए प्रेरित करे।

मुंशी प्रेमचंद की लेखनी आज भी सभी को अपने दिल के क़रीब लगती है तो इसीलिए कि उन्होंने अपने दिल से निकली पीड़ा को शब्दों में आकार दिया। वे सहज, सरल, मिलनसार सहृदय इंसान तो थे ही उनकी अपनी इच्छाएं भी सीमित थीं। मुंशी प्रेमचंद कालजयी रचनाकार इसीलिए कहे जाते हैं क्योंकि उन्होंने अपने काल को रचनाओं में ढाल कर स्वयं को समय से परे कर लिया था।उन्होंने कहा था, ‘‘ यह ज़माना साम्प्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। यह आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिसमें अंधविश्वास, धर्म के नाम पर किया गया पाखंड,नीतियों के नाम पर जनता को दुहने की प्रथा मिटायी जा सके।‘‘ आज जब हम जाति के नाम पर समाज को फिर से बंटता हुआ देखते हैं तो हमें प्रेमचंद के उस लेख की याद आती है जो उन्होंने ‘जातिभेद मिटाने की एक योजना‘ शीर्षक से लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा ‘‘ क्या हम पहले कायस्थ या ब्राह्मण या वैश्य हैं,पीछे आदमी? किसी से मिलते ही एक पहला सवाल यही करते हैं कि आप कौन साहब हैं? ग्रामीण में भी यही प्रश्न पूछा जाता है,कौन ठाकुर? और हम कितने गर्व से अपने को शर्मा,वर्मा ,तिवारी,चतुर्वेदी लिखते हैं कि क्या पूछना। यह इसके सिवाय क्या है कि भेदभाव हमारे रक्त में सन गया है और हममें जो पक्के राष्ट्रवादी हैं वे भी अपनी साम्प्रदायिकता का बिगुल बजाकर फूले नहीं समाते। वरना इसकी जरूरत ही क्या है कि हम अपने को चतुर्वेदी या त्रिवेदी कहें?खासकर उस दशा में कि हमने वेद की सूरत नहीं देखी और इसमें भी संदेह है कि हमारे पूर्वजों ने भी कभी इसके दर्शन किए थे।”

प्रेमचंद को याद करते हुए हम यह सीखें कि अगर अपनी प्रस्तुति में स्वाभाविकता होती है तो वह कालजयी होती है। अगर सफलता का नशा हमारे सिर नहीं चढ़े और हम अपनी ज़मीन को नहीं भूलें तो प्रसिद्धि का आसमान सदैव हमारे लिए उपलब्ध रहता है। यदि हम सहज,सरल और मिलनसार रहें तो सभी के प्रिय बन सकते हैं।आम आदमी के दुःख और उनकी तकलीफ जब तक हमसे एकाकार नहीं होते तब तक हमारी कला में जीवन्तता नहीं आ पाती। इसलिए कोशिश करें कि हमारे दर्द उनके ही दर्द हों जो उपेक्षित और वंचित हैं। प्रेमचंद जी को नमन।

🔲 आशीष दशोत्तर

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