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सूक्ष्म अनुभवों को अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार नंदलाल उपाध्याय ‘अतुल विश्वास’ की नजर में सावन आए तो क्या है, सावन जाए तो क्या है

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 आशीष दशोत्तर

कवि की दृष्टि व्यापक होती है। जीवन के बहुत सूक्ष्म अनुभव किसी महत्वपूर्ण कविता का आधार बन सकते हैं । कविता के लिए बड़े शब्दों और बड़े कैनवास की आवश्यकता नहीं होती। छोटी से छोटी कविता भी संभावनाओं का एक आकाश तैयार कर लेती है। ऐसी कविता जनमानस के मन पर अंकित होती है । ऐसे ही सूक्ष्म अनुभवों से अपने काव्य को अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार थे श्री नंदलाल उपाध्याय ‘अतुल विश्वास’।

उनके नाम के साथ उनका तख़ल्लुस अपने आप में उनके अटल इरादे को अभिव्यक्त करता था। जिसके वे हामी रहे, वही उनकी रचनाओं में शामिल भी हुआ।

एक ही चीज़ है पास

जन के प्रति

मेरा अतुल विश्वास।

जन के प्रति उनका यह विश्वास ही उनकी ताक़त रहा । श्री उपाध्याय अपनी कविता में उस जन के साथ खड़े भी रहे और उसे ताक़त भी दी। वे आम जनमानस के दुःख- दर्द को अपनी कविता के जरिए व्यक्त करते रहे ।उसके खिलाफ़ हो रही साजिशों को बेनकाब करते रहे । उसकी राह में आने वाले अवरोधों से उसे सचेत करते रहे। उसके लिए बुने जा रहे षड्यंत्रों से उसे सतर्क भी करते रहे।

मैं दबा दिया गया हूं

बर्फ़ की कई तहों के बहुत भीतर।

फिर भी मैं हूं

मेरा यूं होना भी

उन्हें अच्छा नहीं लगता।

व्यवस्था के पहरेदारों को जनता ही चुनती है। इन पहरेदारों को आम जनता की तकलीफों का समाधान करना चाहिए। मगर हालात इसके विपरीत रहे हैं । बरसों से अपनी हक़ की लड़ाई लड़ने वाले लोग आज भी अपने अधिकारों से वंचित हैं। उपाध्याय जी इन वंचितों के दर्द के लिए ऐसी व्यवस्था को करारा तमाचा मारते हैं। वे उन पहरेदारों को कटघरे में खड़ा करते हैं, जिन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी ईमानदारी से नहीं निभाई। जो पद, प्रतिष्ठा और प्रभाव के संपर्क में आते ही अपनी ज़िम्मेदारियों को भूल गए।

जनता अपने पहरेदारों के प्रति अगाध श्रद्धा रखती रही ,मगर हमेशा छली गई। नंदलाल जी ऐसे पहरेदारों पर कटाक्ष करते हैं और उनके प्रति अगाध श्रद्धा रखने वालों को भी सचेत करते हैं।

एक अंधी श्रद्धा के मुगालते में

हमने उन कापालिकों को चुना

जो कल हमारा

कफ़न तो कफ़न समूचे शव को

जश्न बना कर खा जाएंगे।

कवि अपनी रचना में कई सारे सवाल उठाता है और उन सवालों के जवाब पाठकों पर छोड़ देता है। नंदलाल जी भी अपनी कविता में ऐसे कई सवाल उठाते रहे। उन्होंने अपने सामाजिक ताने-बाने से जो संदर्भ उठाए उन संदर्भों में भी कविता के लिए एक स्पेस खोजा। उनका यही स्पेस उनकी कविताओं को प्रभावी बनाता है।

उन्होंने अपनी कविता में भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया। बहुत लम्बी कविताएं नहीं लिखी। किसी एक लीक पर वे नहीं चले। छंद मुक्त और छंद बद्ध दोनों प्रकार की रचनाएं लिखते रहे। गीत और रुबाई के साथ हाइकू जैसी विधा पर भी नंदलाल जी की कलम चली।

इन सबके बावजूद उनके भीतर का कवि छंद मुक्त कविताओं में ही मुखरता से अभिव्यक्त हुआ है ।यदि उनकी समूची काव्य श्रंखला का अवलोकन किया जाए तो उसमें छंदबद्ध कविताएं , छंदमुक्त कविताओं से कुछ पीछे दिखती हैं। यद्यपि उनकी छंद पर पकड़ थी और वे उन  कविताओं को उसी लय में पढ़ते भी रहे, मगर फिर भी जो गुंजाइश उनकी छंदमुक्त कविताओं में नज़र आती है वह अन्य कविताओं में नहीं।

नंदलाल जी के कविता संसार में कुछ ऐसी कविताएं भी शामिल हैं जो सीधे-सीधे अव्यवस्थाओं को आईना दिखाती हैं।  उन्होंने कविता में उदारता कभी नहीं बरतीं।

तुमने खूंटी पर टांग दिया प्रजातंत्र

और अब तुम खूंटी को ही

प्रजातंत्र कहने लगे

तुम्हारे सौम्य, सुंदर मुखड़े से

तानाशाही के सड़े नाले की

बहुत तेज़ दुर्गंध आती है ।

इतनी कि प्रजातंत्र का दम घुटने लगता है

और आदमी खटमल की तरह मरने लगता है।

तुमने संविधान में लिख दिया प्रजातंत्र

अब तुम संविधान को ही

प्रजातंत्र कहने लगे हो।

बाज़ारवाद की गिरफ्त में हम हैं । धीरे-धीरे बाज़ार हमारे जीवन में भी शामिल होता जा रहा है। नंदलाल जी ने बाज़ार के बढ़ते दायरे को भी अपनी कविताओं के माध्यम से उठाया। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और सोचने का तरीका बाज़ारवाद की जकड़न को अपनी कविता के जरिए बखूबी व्यक्त करता रहा। वे बाज़ारवाद के हमले से बचने की बात भी कहते रहे और उससे निपटने के लिए एक बेहतर और मज़बूत पहल की उम्मीद भी करते रहे।

हमारे एकान्तिक क्षणों तक

शोषण के नाग पहुंच चुके हैं

तुम आराम से ही आना

और मुफ़लिसों की प्रतीक्षा में

प्यार का गीत भूल कर भी मत गाना।

ऐसा नहीं है कि नंदलाल जी ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को ही कविता की आधार बनाया ।उनकी कविताएं प्रकृति के कई चित्रों के लिए थीं। स्वाभाविक रूप से उनकी कविताओं में बारिश, बादल, सावन -भादो, ग्रीष्म , शरद जैसे विषय आते रहे ।

प्रकृति से कोई कवि अलग हो ही नहीं सकता। जो कभी प्रकृति प्रदत्त उपहारों से स्वयं को अलग कर लेता है ,वह सृजन नहीं कर सकता। प्रकृति सृजन की सदैव प्रेरणा देती है। प्रकृति की खुशहाली और उस खुशहाली में सेंध लगाती मानवीय इच्छाएं कवि को प्रभावित करती हैं। नंदलाल जी भी प्रकृति के निकट के कवि थे। उनकी कई रचनाओं में प्राकृतिक चित्रण के साथ वहां मौजूद विपन्नता का मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है।

सावन आए तो क्या है

सावन जाए तो क्या है

जब सारा मधुबन सूना 

कोयल गाए तो क्या है।

            इन सबके बावजूद मनुष्य को जो जीवन मिला है वह अद्भुत है और अनुपम। नंदलाल जी एक रचनाकार की हैसियत से हर मनुष्य को यह एहसास कराते हैं कि जीवन में आने वाली कठिनाइयां ही ज़िंदगी का मज़ा बढ़ाती है। जिस जीवन में परेशानियां नहीं है ,जहां दुःख नहीं है, जहां विपन्नता नहीं है, वहां खुशहाली और संपन्नता की उम्मीद नहीं की जा सकती। नंदलाल जी हर परिस्थिति में मुस्कुराने का साहस देने वाले कवि थे । वे स्वयं ज़िंदगी भर अभावों से लड़ते रहे मगर उनकी रचनाओं में उनका यह अभाव कहीं परिलक्षित नहीं हुआ। वे अभाव के नहीं स्वभाव के कवि थे।

द्वैत -अद्वैत की

काल्पनिक और सारहीन रंगीनियों के बाहर

जो आंखों से दीखता सुहावना संसार था

वह तुम्हें क्यों नज़र नहीं आया?

नंदलाल उपाध्याय जी अपनी कविता के संसार में विचरण करने वाले अनोखे कवि थे। उन्होंने कभी किसी प्रकाशन की चाह नहीं रखी। उनके अवसान के उपरांत उनका काव्य संग्रह ‘जिजीविषा’ प्रकाशित हुआ। उन्होंने ताउम्र शिक्षा देते हुए नई पीढ़ी को अपने विचारों के साथ समझौता न करने की सीख दी।  विद्यार्थियों ने उनसे बहुत कुछ सीखा ही होगा मगर उनकी कविताएं आज भी यह सीख दे रही है ये कविताएं हिंदी साहित्य के लिए महत्वपूर्ण हैं।

 आशीष दशोत्तर

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