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मुस्लिम बहुल राष्ट्रों में सामान्य, मगर भारत की संस्कृति और हिन्दू समाज की दृष्टि से यह घटना महत्वपूर्ण

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🔲 डॉ. रत्नदीप निगम

भारत के पड़ोस में अथवा कहें कि भारत के एक पूर्व भूभाग में एक घटना घटी जिसका विश्लेषण वर्तमान भारत में रहने वाले समाज को अवश्य करना चाहिए। घटना यह है कि अफगानिस्तान में अमेरिका के हटते ही तालिबान नामक आतंकवादी संगठन ने बड़ी ही आसानी से कब्जा कर लिया।

सामान्य दृष्टि से देखें तो लगता है कि जैसे कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि मुस्लिम बहुल राष्ट्रों में यह होता रहता है, लेकिन भारत की संस्कृति और हिन्दू समाज की दृष्टि से यह घटना महत्वपूर्ण है। इस घटनाक्रम ने यह सिद्ध कर दिया कि हिन्दू संस्कृति विश्व मे सर्वश्रेष्ठ क्यों है? हमारा इतिहास ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है, जब हमने अपनी शरण मे आए विभिन्न संप्रदायों और भिन्न-भिन्न संस्कृति के लोगों को अपनी धरती पर शरण दी तो आजीवन उनको सुरक्षा और स्वतंत्र जीवन प्रदान किया। हमारी संस्कृति की श्रेष्ठता ही थी कि आने वाले समुदाय ने बगैर किसी संघर्ष और विवाद के अपनी संस्कृति को हिन्दू संस्कृति में विलीन कर लिया अर्थात एकाकार कर लिया। पारसी जब ईरान से और यहूदी जब पोलैंड से भारत आए तो भारत ने सम्मान, सुरक्षा और भयमुक्त जीवन के साथ उनका पालन पोषण किया, जिससे उनके भीतर जो कृतज्ञता का भाव जागृत हुआ, उसके कारण उन्होंने सदा के लिए भारतीयता को अपनाकर इस राष्ट्र को ही अपना मानकर इसकी समृद्धि और वैभव में अपना सर्वस्व योगदान दिया। जब तिब्बत से पलायन कर दलाईलामा भारत आए तो उनको शरण देने के कारण भारत को शक्तिशाली चीन के आक्रमण को झेलना पड़ा और कई सैनिकों और भूमि का बलिदान करना पड़ा, लेकिन भारत ने दलाईलामा को चीन के हवाले नहीं किया। ये है हमारी संस्कृति।

इसके विपरीत अफगानिस्तान में इस्लामिक संस्कृति और ईसाई संस्कृति तथा कम्युनिस्ट संस्कृति को हमने देखा भी और परखा भी। इस्लामिक संस्कृति के अफगानिस्तान में जब कम्युनिस्ट रूस ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए प्रवेश किया तो अफगानिस्तान के समाज ने कम्युनिस्ट शासन से भरपूर सुविधाओं का लाभ प्राप्त किया, लेकिन इस्लामिक संस्कृति और कम्युनिस्ट संस्कृति का एकाकार नहीं हुआ, परिणामस्वरूप रूस ने अफगानिस्तान को अपने हाल पर छोड़ वापसी का रास्ता अपना लिया। रूस के जाने के बाद समान संस्कृति के लालच में अफगानिस्तान के समाज ने पाकिस्तान द्वारा पोषित और समर्थित तालिबान को अपना लिया और पाकिस्तान पर आश्रित रहने लगे लेकिन पाकिस्तानी समाज और अफगान समाज एक ही मजहब और एक ही संस्कृति के होते हुए भी एकाकार नहीं हो सके, फिर अफगानिस्तान में इसाई संस्कृति के ध्वजवाहक अमेरिका का प्रवेश हुआ। 20 वर्षों तक अमेरिका ने वहाँ 3 लाख सैनिकों की सेना का गठन किया, सेना को प्रशिक्षित किया और उन्हें आधुनिक हथियारों से सुसज्जित किया।

भारत ने इस दौरान गरीब अफगान समाज के लिए सैकड़ों अस्पताल बनाएं, सड़कें बनाई , बस परिवहन शुरू किया, बड़े बड़े बाँध बनाए, बिजली उत्पादन शुरू किया अर्थात इस्लामिक संस्कृति से युक्त अफगान समाज को सर्वसम्पन्न बनाने के लिए हर संभव प्रयास किए, लेकिन ईसाई संस्कृति से युक्त अमेरिका ने अपने स्वार्थ की पूर्ति होने के पश्चात शरणागत अफगान समाज को अलविदा कह दिया। अमेरिका के अफगानिस्तान से बाहर होते ही जब तालिबान ने पाकिस्तान के सहयोग से मात्र 25 हजार आतंकवादियों के साथ पुनः अफगानिस्तान में प्रवेश करना प्रारंभ किया तो 3 लाख की इस्लामिक अफगान सेना ने तालिबान के स्वागत में आत्मसमर्पण कर दिया। इतने वर्षों तक अमेरिका के अफगानिस्तान में रहने के बाद भी दोनो संस्कृति एकाकार नहीं हो सकी और न इस्लामीक अफगान सेना के मानस में कोई परिवर्तन हुआ, जबकि अफगान सेना बनी तो अफगान समाज के ही युवाओं से।

इस सम्पूर्ण तुलना का निष्कर्ष यह है कि इस्लामिक संस्कृति और समाज कभी भी किसी के साथ एकाकार हो ही नहीं सकते भले ही उनके लिए कोई भी कितनी भी सुविधाएं प्रदान कर दे, उनकी निष्ठा और समर्पण उनके मजहब के कट्टरपंथी लोगों के प्रति ही रहेगा चाहे वो मौन समर्थन हो अथवा मुखर। जैसे अफगान सेना ने किया । दूसरा निष्कर्ष यह है कि कम्युनिस्ट संस्कृति और ईसाई संस्कृति केवल अपने स्वार्थ के लिए किसी का उपयोग और शोषण करती है और शरणागत को कभी भी आजीवन अभयदान नहीं दे सकती। अपना स्वार्थ पूरा होते ही आश्रित को बेसहारा छोड़ सकते हैं।

अफगानिस्तान में उपरोक्त तीनों संस्कृति के अनुभव को सम्पूर्ण विश्व ने देखा और महसूस किया कि जो स्तिथि आज वहाँ की है उसका कारण सांस्कृतिक दोष है न कि कोई और। भारत मे भी इस तरह के कुछ तत्व मौजूद हैं जिनमें इन तीनों संस्कृतियों के दोष पाए जाते हैं। इसलिए वे तिब्बतियों, पारसियों और यहूदियों की भाँति भारतीय संस्कृति से एकाकार नहीं करते हैं।

कभी भारत के एक हजार टुकड़े करने के सपने देखते हैं कभी तैमूर और औरंगजेब को अपना सांस्कृतिक नायक मानते हैं और कभी भारत को ईसाई बनाने की योजना बनाते हैं। इसलिए अफगानिस्तान ने घटनाक्रम ने भारतीयों को चिंतन करने का अवसर प्रदान किया है कि हम अपने समाज से इन तीन संस्कृतियों के तत्वों को समाप्त करें जिससे हमारी सांस्कृतिक श्रेष्ठता कायम रह सके।

🔲 डॉ. रत्नदीप निगम, रतलाम

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