वे बोले तो ‘ फत्थर’ की लकीर

 आशीष दशोत्तर

आपके लिए बोलना कला है, उनके लिए बोलना बला है । आप सोच-सोच कर बोलते हैं, वे बोल- बोल कर भी नहीं सोचते। आप अदब के साथ कुछ भी कहते हैं , उनके हर कहने में दबदबा नज़र आता है। वे बोलने के लिए इतने लालायित रहते हैं कि हर वक्त बोलते रहते हैं । किसे , कितना, क्या और कैसा बोलना है यह उन्होंने कभी जाना ही नहीं। किसी के कहे को सच माना ही नहीं। किसी को कुछ समझने का तो सवाल ही नहीं। उनके बोले हुए शब्दों पर गौर किया जाए तो कई शब्दकोशों का तर्पण हो जाए।

उनका बोला ‘फत्थर’ की लकीर होता है। उन्होंने जब भी बोला उसे तोला नहीं। जिसने उनके बोलों को तोला, उससे पलटकर कभी बोला नहीं। वे बोलते हैं मतलब ‘डीपली’ बोलते हैं। उनके अपने ‘ लफज ‘ , अपनी ‘सटाइल’  होती है । ‘बक दिया सो बक दिया’ वाले अंदाज़ में वे बोले चले जाते हैं।

बोलते समय वे किसी तरह का ‘रिक्स’ नहीं लेते।  बोलकर वे बोलने का ‘लुफ्त’ उठाते हैं । आपके यहां पतझड़ के बाद ‘बहार’ आती होगी मगर उनके यहां ‘बाहर’  आती है। आप दिवाली पर खूब पटाखे छोड़ते हैं मगर वे बरसों से ‘फटाके’ ही छोड़ रहे हैं।

उनके यहां ‘बेफालतू’ कुछ भी नहीं। इसके बावजूद ‘भी’ उन्हें हर ‘ जिगो ‘ फालतू ही समझा जाता है। कई बार ‘बेफिजूल’  बात कहते-कहते वे ‘ अपना घर जलाकर दूसरों का घर फूंकना ‘ जैसे मुहावरों का वाक्यों में प्रयोग कर देते हैं। ‘ चौहिराहे ‘ की हर ‘ डिस्कनेक्शन’ में वे शामिल होते हैं।

अपनी हेल्थ के प्रति वे बहुत ‘ खबरदार ‘ रहते हैं।’सुबे-सुबे ‘ की सैर पर ‘मॉर्निंग वॉक’ ज़रूर करते हैं। ‘रनिंग’ करते हुए ‘दौड़ते’ भी हैं। मौसम को देखते हुए ‘अंदर इनर ‘  और ‘ नीचे लोवर ‘ पहनना नहीं भूलते।  रास्ते में कोई ‘ जूस-जास ‘ वाला दिख जाए तो वह भी गटक लेते हैं मगर आप जैसा ‘फीकाफच्च’ नहीं, बिल्कुल ‘मीठागट्ट’।  दोपहर के भोजन में सिर्फ ‘लंच’ लेते हैं, और रात में ‘डिनर’। इतना संयमित जीवन जीना कोई उनसे सीखे।

शादी की ‘ मैरिज’ के ‘ रिप्सेशन ‘ में सपरिवार ‘सहित’ पहुंचते हैं। पहले  ‘मानू कारड ‘ देखते हैं फिर हर ‘ इंस्टाल ‘ को चखते  हैं। वहां मौजूद हर व्यक्ति को ‘ टच ‘ करते हैं। खाने के ‘ अस्वाद’ पर अपनी टिप्पणी देना नहीं भूलते। वहां गाना-बजाना हो रहा हो तो अपनी ‘फरमाइसें’ अवश्य देते हैं। सुनने के बाद ‘ दम नी है’ कहकर अपने संगीत ज्ञान का प्रमाण देते हैं। किसी ‘ दूकान’ के ‘उद्धाटन’ में भी चकाचक पहुंचते हैं। ‘दूकान’ मालिक को ‘ बालश्रम उन्मुक्त संस्थान ‘ वाला बोर्ड लगाने का सुझाव दे कर अपनी  ‘इम्पारटेंसी ‘ बताने से नहीं चूकते।

उनका अंदाज़ निराला है। जब कोई ‘ एक्सपायर्ड’ हो जाता है तो मरने के कारण जानने से लेकर मरने से बचने की सारी ‘मुफत’ सलाह स्वयं देते हैं।  ‘ वाट्साप’ पर उनके ‘ बिजीपन’ का कोई मुकाबला नहीं कर सकता।

आजकल वे सोशल ‘डीसेटिंग’ का पालन कर रहे हैं। मिलना-जुलना कम हैं मगर ‘बोलना-बालना’ नहीं । वे धड़ल्ले से बोल रहे हैं। उनके मुख से ‘टूवाल’ सुन आपका तौलिया भले ही तार-तार हो जाए,वे हार नहीं मानते। आप उनके कहे को कितना और कैसा समझते हैं,इसकी उन्हें कोई ‘ टेंसन’ है ही नहीं। वे हमेशा ‘ टेंसन’ देते हैं कभी लेते नहीं। लोग मंद-मंद मुस्कुराते हुए उन्हें सुनते हैं, यही क्या कम है?

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