घट्टी पीस रही है मां

सदियां गुजर गईं ,
मां अभी तक घट्टी पीस रही है,
वह थकी नहीं ,
फैलती जा रही
घट्टी की आवाज के साथ,
तपते बैसाख में तप रही है
मां की गीली मिट्टी,
अन्न के दाने मोतियों में बदल रहे हैं
मां की उंगलियों को छू कर।

महालक्ष्मी के विग्रह में झूल रही है पृथ्वी
तो उसकी एक ही वजह :
मां अभी तक घट्टी पीस रही है ।

गीत उगे थे फसल के साथ ही
मां के हिवड़े में,
गीतों की लय पर ही चल रही है घट्टी,
लय अब भी वही,
बोल भी ज्यों के त्यों,
घट्टी घूम रही है मां की भुजाओं में भरी हुई।

बेटे-बेटियां घूम रहे हैं
बड़े सारे बाजार को बाँहों में भरकर,
तो उसकी एक ही वजह :
मां अभी तक घट्टी पीस रही है ।

घट्टी के साथ माँ घूम रही है गोल-गोल
जैसे पृथ्वी घूम रही है ,
मां पिसती चली जा रही है
गेहूँ के साथ लयबद्ध होकर ,
मां के भीतर गीली मिट्टी की सुवास
अब भी ज्यों की त्यों,
मां के भीतर की मिठास
अब भी ज्यों की त्यों ,
मां का मक्खन जैसा स्पर्श
अब भी ज्यों का त्यों है।

यह सब ज्यों का त्यों है
तो उसकी एक ही वजह :
मां अभी तक घट्टी पीस रही है।

मां घट्टी पीस रही है
तो सूरज उग रहा है,
मां घट्टी पीस रही है
तो पिता के हाथों में उभरी हुई
भाग्य की रेखा।

बेटियां पहुंच रही है
हिमालय की चोटी पर,
तो उसकी एक ही वजह :
माँ अभी तक घट्टी पीस रही है ।

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डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला, साहित्यकार

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