भारतीय धर्म की आस्था और विश्वास को पाश्चात्य संस्कृति के दुष्प्रभाव से सुरक्षित रखने का कार्य किया श्री रामकृष्ण परमहंस ने

“वैसे भी आस्था और विश्वास, बुद्धि और तर्क का विषय नहीं हो सकते, ये केवल आत्मा परमात्मा का विषय है और इसलिए रामकृष्ण परमहंस ने उस समय के सभी तर्कवादी और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग से भगवत चर्चा प्रारंभ कर दी। बिना इस भय के कि वे जिनसे भगवत चर्चा करने जा रहे हैं वे सभी शिक्षा, ज्ञान और तर्क में उनसे कहीं आगे हैं लेकिन रामकृष्ण परमहंस की प्रज्ञा शक्ति भी उनके तर्क, ज्ञान और उच्च शिक्षा  पर भारी थी।”

 श्वेता नागर
                   
“जितने मत हैं उतने ही मार्ग है….अपने मत पर निष्ठा रखनी चाहिए पर दूसरों के मत की निंदा नहीं करनी चाहिए | “

ये उदार विचार , बंगाल प्रांत के एक गाँव में जन्म लेने वाले अनपढ़ व्यक्ति, जिन्होंने कभी कोई औपचरिक शिक्षा अपने जीवन में प्राप्त नहीं की, हल भारत के महान संत श्री रामकृष्ण परमहंस के हैं।सोचिए ! रामकृष्ण  परमहंस उस दौर में धर्म को लेकर इतने उदार विचारों के स्वामी थे जब दुनिया की सबसे शिक्षित और सभ्य कहे जाने वाली यूरोपियन जाति भी धर्म और इसके स्वरूप को लेकर वैचारिक द्वंद में थी। इसलिए महान है भारतीय संस्कृति , जिसने हर मत और विचार का स्वागत किया और उसे अपने में समाहित कर लिया।

चूँकि भारत के बंगाल प्रांत में भी उस समय पाश्चात्य संस्कृति और संस्कारों का प्रभाव उच्च शिक्षित वर्ग पर बढ़ता जा रहा था। यद्यपि यह भी स्वीकारना होगा कि उस समय भारतीय समाज में बाल विवाह, सती प्रथा जैसी बुराइयाँ भी समाज में विद्यमान थी, जिसका विरोध उस समय के शिक्षित वर्ग ने किया जो उचित और अनिवार्य था लेकिन धीरे-धीरे समाज सुधार के नाम पर निरंतर हिंदू धर्म की पद्धतियों और परंपरा को भी निशाना बनाया जाने लगा और इस कार्य के लिए ऐसी कई संस्थाएं और संगठन बन गए जिन्होंने आस्था और विश्वास को ही संदेह के कटघरे में खड़ा करना प्रारंभ कर दिया यानी विशेषकर हिंदू धर्म की मान्यताओं के प्रति अविश्वास का माहौल निर्मित किया गया। बंगाल में ऐसा समय भी आया जब तर्क वादी और उच्च शिक्षित वर्ग ने धर्म को केवल वाद- विवाद का विषय बना दिया था। मूर्ति पूजा का विरोध करना ही उन्होंने अपना लक्ष्य और ध्येय मान लिया था, सगुण- निर्गुण ब्रह्म को लेकर विवाद बढ़ते ही जा रहे थे, द्वैत-अद्वैतवाद का युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा था और अंधविश्वासों के विरोध ने धार्मिक आस्था के धरातल पर मानो भूकंप ला दिया हो। तब रामकृष्ण परमहंस ने अपने धर्म को लेकर अपने उदार विचारों के माध्यम से तात्कालिक समाज से इस अविश्वास और अनिश्चितता को दूर करने का भागीरथ प्रयास किया।

नि:संदेह रामकृष्ण परमहंस को दुनिया स्वामी विवेकानंद के गुरु के तौर पर अधिक पहचानती है या फिर माँ काली के परम भक्त के रूप में, लेकिन गहराई से अध्ययन किया जाए तो उस समय रामकृष्ण परमहंस ने उस समय में भारतीय धर्म की आस्था और विश्वास को पाश्चत्य संस्कृति के दुष्प्रभाव से सुरक्षित रखने का कार्य किया। वैसे भी आस्था और विश्वास, बुद्धि और तर्क का विषय नहीं हो सकते, ये केवल आत्मा परमात्मा का विषय है और इसलिए रामकृष्ण परमहंस ने उस समय के सभी तर्कवादी और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग से भगवत चर्चा प्रारंभ कर दी बिना इस भय के कि वे जिनसे भगवत चर्चा करने जा रहे हैं वे सभी शिक्षा, ज्ञान और तर्क में उनसे कहीं आगे हैं लेकिन रामकृष्ण परमहंस की प्रज्ञा शक्ति भी उनके तर्क, ज्ञान और उच्च शिक्षा  पर भारी थी। उस दौर के सबसे तर्कवादी, उच्च शिक्षित और विद्वान केशवचंद्र सेन थे , जो कि ब्रह्म समाज से जुड़े थे, वे रामकृष्ण परमहंस के सामने मानो अपने तर्क, ज्ञान और विद्वता का ब्रह्मास्त्र लेकर खड़े थे। लेकिन इसके बावजूद भी केशवचंद्र सेन एक उदार हृदय के स्वामी भी थे इसलिए भले ही उन्होंने अपनी तर्क बुद्धि से रामकृष्ण परमहंस को पराजित करना चाहा लेकिन रामकृष्ण परमहंस के प्रेम और करुणामय भावों के समक्ष नतमस्तक हो गए। इसका प्रमाण है केशवचंद सेन के लेख और विचार, जिसमें उन्होंने निरंतर रामकृष्ण परमहंस की भक्ति और पवित्र विचारों की कीर्ति को बंगाल के कोने-कोने में फैलाया या यह कहना उचित होगा कि रामकृष्ण परमहंस के विचारों को बुद्धिजीवियों के बीच पहुंचाने का कार्य किया। रामकृष्ण परमहंस  का सभी धर्मों की एकता के साथ ही हिंदू धर्म की अविभाज्यता पर भी उनका जोर था। इसलिए वे सदैव अपने शिष्यों के प्रति इस बात को लेकर सजग और सतर्क रहे कि वे अपनी शिक्षा और शक्तियों का प्रयोग शुभ कार्यों के बजाय किसी नवीन संप्रदाय को बनाने में न करने लगे। मानवमात्र में देवता के दर्शन करने वाले रामकृष्ण परमहंस के सहज, सरल और उदार विचारों ने ही उन्हें देव तुल्य बना दिया, उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय में कहा भी था कि-
“मेरी शिक्षा प्रायः समाप्त हो चुकी है। लोगों को सिखाने लायक अब मेरे पास कुछ नहीं रहा हैं। कारण, मुझे जगत के सब पदार्थ भगवतमय दिखाई देते हैं तो मैं किसे शिक्षा दे सकता हूँ।”
महान शिष्य स्वामी विवेकानंद के महान गुरु रामकृष्ण परमहंस को उनकी जयंती पर प्रणाम।

 श्वेता नागर

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