साहित्य सरोकार : कोरोनाकाल में लिखी महिला रचनाकारों की कविताएं
⚫ नरेंद्र गौड़
पिछले दो साल का समय लाखों करोड़ों धरतीवासियों के लिए बेहद संकटपूर्ण रहा है, हजारों लोग बेमौत मारे गए और अनेक देशों की अर्थव्यवस्था ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। ऐसा नहीं कि अभी यह संकट पूरी तरह समाप्त हो चुका है, वरन इसके खतरे आज भी बरकरार हैं। इस संकट के गहरे प्रभाव संगीत, साहित्य, चित्रकला जैसी विधाओं पर भी पड़ने शुरू हो चुके हैं और भविष्य में भी पीड़ा तथा दर्द के इन शिलालेखों का सृजन जारी रहेगा। यहां हम जिन चार रचनाकारों की चुनिंदा कविताओं को शामिल कर रहे हैं, उन्होंने अपनी कविताएं कोरोनाकाल में लिखी अवश्य हैं, भले ही इनकी रचनाओं में उसकी छांया प्रतिछांया और हल्की आहटमात्र विध्यमान हो।
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रेनू अग्रवाल ‘रेनू’
रेनूजी गोरखपुर उत्तरप्रदेश में जन्मी हैं और इन दिनों उड़ीसा के जिले बरगड़ की तहसील बरपाली में साहित्य रचना कर रही हैं। यह ऐसा इलाका है, जहां हिंदी का कहीं नामोनिशान नहीं है और जहां इनकी कविताएं सुनने वाला भी कोई नहीं है। इसके बावजूद आप लगातार सृजनशील हैं और यह खासतौरपर बताना जरूरी है कि आप भोजपुरी की समृध्द लोकगायन परंपरा को भी आत्मसात किए हुए हैं। अपनी कविताओं और गीतों की शानदार तथा प्रभावी प्रस्तुति करती हैं। हिंदी साहित्य में एमए, बीड कर चुकी रेनूजी कविता लेखन के साथ शिक्षण कार्य से जुड़ी हुई हैं। हाल ही में आप एक अखबार की संवाददाता भी नियुक्त की गई हैं। आपका कहना है कि कविता लिखने की प्रेरणा इन्हें अपने पति जयप्रकाश अग्रवाल से मिलती है। इनका पहला कविता संकलन ’एक और राधा’ प्रकाशित तथा चर्चित हुआ है। यहां रेणुजी की कुछ कविताएं-
कोरोना : विडम्बना
अति हो जाती है जब किसी चीज की
इंसान हो ही जाता है बेपरवाह
जीने लगता है तो केवल भाग्य भरोसे
बन जाता है आलस्यपूरित और लापरवाह
यह महामारी भी कैसी विडम्बना है ?
लाखों बेमौत मारे जा चुके
थमने का नाम नहीं लेरहा कालचक्र
एक तरफ तो लोग घरों में बंद रहे
वहीं दूसरी तरफ मयखानों में कतार !
क्या वास्तव में अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई हैं?
कैसे संभलेगी परिस्थिति
एक तरफ कुआं दूसरी तरफ खाई
शिथिलता दिख रही लॉकडाउन के कसाव में
यह देश जा पहुंचेगा पता नहीं
बर्वादी के किस पड़ाव पर
देश किस तिमिर पथ पर बढ़ रहा है
क्या वास्तव में कलियुग अपनी
चरम सीमा को लांघ रहा है ?
नियति
मैं एक बंजर भूमि उदास
अंकुर न फूटा कोई मुझ में
न कोई खुशी मेरे पास
बस, दूर तलक फैली सूखी रेत
जिसका कोई अंत नहीं
जिसमें आया कभी वसंत नहीं
ना ही सावन आता है
न प्रेम जल बरसाता है
बस, सूखी-सी रहती मैं अकेली
बन गई मानो इक अबूझ पहेली
सुलझाना नहीं चाहता कोई
अपना कहना नहीं चाहता कोई
न कोई प्रेम से इसे सींचता
न कोई बीज है अंकुरता
असय्ह आरोप सहती हूं
नित थोड़ा-थोड़ा मरती हूं
आंखें सूनी-सूनी प्रतीक्षा करके
कभी तो कोई आएगा प्रेम नीर भरके
अकस्मात पथिक एक पथ भटका आया
प्यासा था मन देख मुझे मुस्काया
बिन मांगे मन कर बैठा स्वतः समर्पण
संचित प्रेम प्रणय घट ह्दय
नेह का अर्पण
तृप्त हुआ तन मन
लेकिन फिर बंजरता लौट आई
फिर से उदास नितांत अकेली पछताई
हां, मैं एक बंजर भूमि उदास
भाग्य विडम्बना, नियति मेरे पास।
औरतें लौटती हैं काम पर
औरतें लौटती हैं काम पर
बारबारे खाकर बॉस की
अपमान भरी घुड़कियां
पी जाती हैं कड़वे घूंट-सा
लौटते ही घर सीधे वह
घुस जाती हैं चौके की चाकरी में
छुपाती हैं सब से आंसू
चढ़ाकर चाय की तपेली
झौंक देती हैं चाय पत्ती और
बाहर का मानसिक तनाव भी
उबालती कड़क चाय में
कभी सास की दवाई
कभी पति के लिए चाय नाश्ता
कभी बच्चों के कपड़े
धोती पछीटती हुई
भूल जाती हैं अपना दर्द
या कि फिर भूल जाना पड़ता है
जानती हैं कोई नहीं पूछेगा
क्या चाहती है आखिर?
ये औरतें
एक ऐसा मजबूत कंधा
प्रेम से सराबोर जिस पर
सिर रखकर ये सुकून पा सकें
मिल जाए निजात इन्हें
दिनभर की थकान से
और प्यार से पूछे-
तुमने खाना खाया ?
या कि फिर पूछे –
आज का दिन कैसा रहा ?
बस इतना ही तो चाहती
औरतें जब लौटती हैं काम से।
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अनुराधा ओस
अनुराधाजी का जन्म उत्तरप्रदेश के मिरजापुर जनपद में हुआ। आप ‘मुस्लिम कृष्णभक्त कवियों की प्रेम सौंदर्य दृष्टि’ विषय पर पीएचडी कर चुकी हैं। आपकी रचनाएं वागर्थ, आजकल, अहा! जिंदगी, वीणा, समकालीन स्पंदन, सोच विचार, उत्तरप्रदेश पत्रिका, विपाशा, अभिनव प्रयास, कथाबिम्ब, पाठ, दैनिक जागरण आदि में छप चुकी हैं। इसके अलावा स्त्री दर्पण पर पच्चीस समकालीन कवयित्रियों की कविताओं का श्रृंखलाबध्द पाठ एवं यूट्यूब पर इनकी कविताओं की सिरीज जारी हो चुकी है। भोजपुरी, कन्नड़, तथा अंगें्रजी में इनकी कविताओं के अनुवाद हो चुके हैं। सुचेता ब्लाग पर भी आपकी कविताएं हैं। स्त्री दर्पण मंच, गाथांतर, जनसरोकार मंच टोंक पर साक्षात्कार इनकी उल्लेखनीय उपलब्धि है। आकाशवाणी के वाराणसी केंद्र और लखनऊ दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण हो चुका है। इनके दो कविता संकलन ‘ओ रंगरेज‘ तथा ‘वर्जित इच्छाओं की सड़क’ प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा आंचलिक विवाह गीतों का संकलन ‘मंडवा की छांव में’ छप चुका है। इन्हें परिवर्तन संस्था व्दारा छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के हाथों अभिनंदित किया जा चुका है। इन दिनों आप स्वतंत्र लेखन कर रही हैं। प्रस्तुत हैं अनुराधाजी की कुछ कविताएं
दुख की छाया
किताबों से बातचीत
यादों के फूल करते हैं
अक्षरों के कंधे पर सिर
रखकर बतियाते हैं
सदियों का दुख
हल्का करते हैं
स्याही की नोक से निकलकर
रक्त सने हाथों को
पकड़ा देते हैं
उजाले की स्याही
दुख की छाया को
छोटी करती हैं प्रेम कविताएं।
जिंदगी से मिलना
बगीचे में
आम की मंजरियों के बीच टहलना
उनकी सुगंध महसूस करना
जिंदगी से मिलना है
जिसमें भरी सुगंध
मानो जीवन का एहसास है
खेतों के किनारों पर उगी दूब
अपनी पूरी हरियाली को
व्यक्त कर रही है धरा पर
मानो पूरा आकाश झुककर
समेट लेना चाहता हो धरा को
नीले आकाश से भरा है
पानी का प्रतिबिंब
जिसकी गठरी में बंधी है
प्यासे की उम्मीद
मैं धरती को ढंक लेना चाहती हूं
अपनी लाल साड़ी के आंचल से
हरी धरती में कुछ
लाल रंग भी भरना चाहती हूं
निःशब्द होकर भी ये रंग
बहुत कुछ बोलते हैं
हमारे जीवन को रंग से भरकर
स्वयं कुछ नहीें कहते
मैं उन्हीं रंगों की तरह
होना चाहती हूं।
हिंसा के विरोध में कविता
क्रौंच की पीड़ा पर
लिखी कविता
हिंसा के विरोध में थी
या प्रेम के पक्ष में
सदियों से इस कविता को
इंतजार था
अपने जन्म लेने का
पिघलने का
हिंसा के पक्ष में खड़े लोग
कविता नहीं लिख सकते
शायद रिक्त स्थानों में
भर गया है खोलता हुआ लावा
रिक्त स्थानों को
भरने के लिए चाहिए प्रेम
अन्यथा रिक्त को रिक्त ही
रहने देना चाहिए
धरती की पीड़ा हरने के लिए
हिंसा के विरोध में कविताएं
लिखनी चाहिए।
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वर्षा महानंदा
वर्षाजी उड़ीसा के बरगड़ शहर में रहती हैं, जहां आप अध्यापक हैं। छोटी और समाजोन्मुखी कविताओं की वजह से आप साहित्य जगत में पहचान बना रही हैं। हाल ही में आपने फेसबुक को लेकर एक आलेख लिखा है जिसकी बहुत प्रशंसा हो रही है और इनकी वॉल पर लाइक्स तथा कमेंट्स के ढ़ेर लग गए हैं। छपने की दुनिया से सरोकार रखने वाली वर्षाजी कवि संगोष्ठियों से दूरी बनाकर चलती हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। यहां इनकी चुनिंदा कविताएं-
आखिर कब जागेगी जनता ?
सदियों की ठंडी बुझी राख
जो कभी सुलग उठी थी
जिसके हुंकारों से
महलों की नींव उखड़ जाती थी
समय भी कहां उसे रोक सका था
जिधर उसने चाहा, काल उधर मुड़ा था
फिर क्यों वो मिट्टी की
अबोध मूरत-सी बन जाती है ?
क्यों अंग-अंग में दंश झेलकर
मुंह खोलकर दर्द न कह पाती है ?
फिर कोई सत्ताधारी आकर
भूल-भुलैया, जंतर-मंतर में
उसका मन बहलाता है
क्यों जनता अहसास विहीन फूलों-सी
कुचली-मसली जाती है
अंधकार का वक्ष चीरकर
विजय स्वप्न का प्रकाश फैलाकर
हां, उसने ही ललकारा था
फिर क्यों आज सत्ता की कठपुतली बनकर
द्रोपदी-सी पद लुंठित होती है ?
क्यों तिमिर में लुप्त होते
खुद को रोक नहीं पाती है
अब कौन करे यह आव्हान ?
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
(स्व. रामधारीसिंह दिनकर की रचना से प्रेरित)
विश्वास
विश्वास की जीत है
ये मन का मीत है
हारे की हिम्मत है
रूठे की किस्मत है
विश्वास कलम की धार है
योध्दा के लिए तलवार है
आंसुओं को मुस्कान में बदले
बारबार गिरकर जो संभले
दुःख में कोई जब साथ न दे
विश्वास को लेकर तू चल दे
खुद पर रखो तुम विश्वास
जीवन पथ पर बनी रहेगी आस।
तुम खूबसूरत हो
जिन आंखों में ममता बरसे
एक छुअन से तनमन हरसे
ह्दय से प्रेम की गागर छलके
छांव करे तुम्हारी झुकी पलकें
कभी चंचल हो हिरणी-सी
गहन, गंभीर भी अवनी-सी
तुम ममता की मूरत हो
हां, तुम बहुत खूबसूरत हो
रिश्ते गुलदस्तों सी सजाती
तुम ही घर को स्वर्ग बनाती
होंठो पर जब मधुर मुस्कान मिले
मन आंगन में हजारों फूल खिले
माता हो तुम, भगिनी भी
प्रेमिका हो और पत्नी भी
तुम धरती हो, प्रकृति भी
हां, तुम बहुत खूबसूरत हो।