वेब पोर्टल हरमुद्दा डॉट कॉम में समाचार भेजने के लिए हमें harmudda@gmail.com पर ईमेल करे रविवार खास : नवाब ने दिया भारतीय शास्त्रीय संगीत को संरक्षण, सिनेमाघर में सजती थी महफिलें, भैंसों के गले में चांदी की जंजीरें, किन्नरों की हवेली -

रविवार खास : नवाब ने दिया भारतीय शास्त्रीय संगीत को संरक्षण, सिनेमाघर में सजती थी महफिलें, भैंसों के गले में चांदी की जंजीरें, किन्नरों की हवेली

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⚫ रूहानी खुशबू का अहसास

⚫ मानसिक रोगों के उपचार का केंद्र कही जा सकती  है हुसैन टेकरी

⚫ देश विदेश के लोगों का लगता है तांता

⚫ नरेंद्र गौड़

जावरा रियासत के नवाब मोहम्मद इफ्तेखार अली खान भले ही अंग्रेज हुकूमत के प्रति जरूरत से कहीं अधिक वफादार रहे हों, लेकिन उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत को संरक्षण देने की दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है और आश्चर्य इस बात का है कि उनकी कथित आराम तलबी फिजूलखर्ची की चर्चा करने वाले लोग तो हजारों मिल जाएंगे, लेकिन शास्त्रीय संगीत को उनके योगदान को आज कोई याद नहीं करता। उल्लेखनीय है कि उन्होंने यह योगदान भी तब दिया जब राजे रजवाड़े समाप्त हो रहे थे और उनके संरक्षण में रहते हुए गुजारा करने वाले संगीतकार दरबदर भटकने को मजबूर थे। यहां तक कि भारत आजाद हो गया और जावरा रियासत का भी भारतीय संघ में विलिनीकरण हो गया था, इसके बावजूद भी प्रीवीपर्स के जरिए और यहां तक कि साहूकारों के पास अपने मकान, जमीनें ही नहीं महल तक गिरवी रखकर भी भारतीय संगीत  के प्रति उन्होंने रिश्ते का अटूट रखा।

नवाब मोहम्मद इफ्तेखार अली खान

सिनेमाघर में सजती थी महफिलें

जावरा के सिनेमाघर की दीवारें इस बात की गवाह हैं कि जावरा नवाब इफ्तिखार अली खां के दौर में यहां भारतीय संगीत की मफफिलें सजा करती थीं। उन दिनों भारत का शायद ही कोई ऐसा बड़ा कलाकार रहा हो जिसने अपनी कला का प्रदर्शन नहीं किया हो। नवाब मुंहमांगी रकम देकर संगीतकारों को आमंत्रित किया करते थे। दिन ढ़ले से लेकर सूरज की पहली किरणें बिखरने तक कलाकार अपनी प्रस्तुति दिया करती थी। सितारा देवी, बिरजू महाराज, पंडित रविशंकर, पंडित जसराज, उस्ताद विलायत खां, हीराबाई बड़ोदकर जैसे हिंदुस्तान के नामी कलाकार नवाब के बुलावे पर प्रस्तुति देने आया करते थे और जावरा की संगीत प्रेमी दुनिया रातभर आनंद लिया करती थी।

भैंसों के गले में चांदी की जंजीरें

जावरा नवाब इफ्तिखार खां संगीत के इस कदर दीवाने थे कि उन्होंने अपनी भैंसों तक के गले में भी लाहे के बजाए चांदी की जंजीरें डलवा रखी थी। नवाब का कहना था भैंसें जब अपनी गर्दन हिलाएंगी तो संगीत की स्वर लहरी सुनाई देगी।

गुन्नाजान को शानदार हवेली

नवाब को गुलाब के फूलों से बहुत लगाव था। एक बड़ा-सा बाग लगवाया था जिसमें सिर्फ गुलाब ही गुलाब की खेती होती थी। इसके अलावा एक नृत्यांगना गुलाब जान उर्फ गुन्नाजान के नृत्य ने भी नवाब इफ्तिखार को इतना मोहित कर दिया था कि उसे न केवल बेशुमार दौलत वरन बेशकीमती जमीनें देकर मालामाल कर दिया था। उसके रहने के लिए नवाब ने दो मंजिला हवेली भी दे रखी थी। जावरा के मुख्य बाजार में आज भी यह गुन्नाजान की हवेली के नाम से मशहूर है। वैसे जावरा में रियासती दौर में अनेक बाग-बागीचे हुआ करते थे, लेकिन आज उनके निशान तक बाकी नहीं हैं। संगीत और दिगर शौक की दीवानगी के कारण नवाब ने जमीन और अनेक मकान ही नहीं अपना महल तक गिरवी रख दिया, आज वह सभी साहूकारोें की संपत्ति है। जावरा का डाकघर जहां आज लिफाफों पर ठप्पा लगाने की आवाज आती है, वहीं कभी संगीत की महफिलें सजा करती थी। नवाब की जुड़वां संतानें थी। इनमें से जिसका जन्म पहले जन्म हुआ उसे उत्तराधिकार में जावरा की रियासत मिली और दूसरे को हुसैन टैकरी के मुतवल्ली के तौर पर एक छोटे-से कमरे में दिन गुजारने पड़े थे।

प्रवेश द्वार

किन्नरों की हवेली

जावरा में किन्नरों की हवेली भी आबाद है। कहा जाता है कि एक बार नवाब के यहां किसी की शादी थी तो गाने गजाने के लिए किन्नरों की तलाश हुई, लेकिन वह कहीं नहीं मिले। तब दूर दराज के शहर से उन्हें बुलाया गया। शादी निपटने के बाद जब वह जाने लगे तो नवाब बोले- यह आखिरी शादी तो है नहीं रियासत में आए दिन मांगलिक आयोजन होते ही रहते हैं, इसलिए अब आप लोगों को कहीं जाने की जरूरत नहीं है। नवाब ने उनके रहने के लिए एक मकान दे दिया। आज भी वह किन्नरों की हवेली के नाम से जाना जाता है। जावरा के बुढ़े बुजुर्गो की जुबान पर नवाबी दौर के अनेक किस्से हैं। यदि उन्हें संकलित किया जाए तो अच्छी खासी किताब लिखी जा सकती है।

उस्ताद अमीर खां के नवाब परम मित्र

इंदौर घराने के गायक उस्ताद अमीर खां

इंदौर घराने के गायक उस्ताद अमीर खां और नवाब इफ्तिखार के मैत्रीपूर्ण संबंध इतने प्रगाढ थे कि अमीर खां कई महिने जावरा में नवाब की मेहमान नवाजी किया करते थे। चूंकि राग मेघ तथा उसकी विभिन्न किस्में बरसात के दिनों गाई-बजाई जाती हैं, इसलिए अमीर खां साहब का बरसात के चार-चार माह तक जावरा में मुकाम रहा करता था। उस दौरान रात-रात भर जंगलों में शिकार के साथ अमीर खां के गायन के दौर चला करते थे। कहना न होगा कि राजे रजवाड़ों, नवाबों ने देश के जंगलों से शेर, चीतों, बारहसिंघों, हिरण ही नहीं निरीह खरगोशों तक का नामोनिशान तक मिटा ड़ाला। सिर्फ अपने दीवानखानों में उनके सींग और खालें सजाने के लिए तथा मित्रमंडली को अपने पराक्रम की बढ़ा-चढ़ाकर किस्से सुनाने के लिए। उस दौर में नवाब ने अपने शिकार की फिल्में बनवाने में भी खूब दौलत खर्च की थी।

फिल्म ‘झनक झनक पायल बाजे‘

फिल्म ‘झनक झनक पायल बाजे’ में अमीर खां साहब का गाया टाईटल सांग है। जब यह फिल्म रिलीज हुई और लोगों ने अमीर खां साहब को सुना तो पगला गए। वहां के टाकीज में कई दिनों तक यह फिल्म लोगों ने देखी। अमीर खां नवाब ही नहीं जावरा के आम लागों के बीच भी कम लोकप्रिय नहीं थे। यहां तक कि उनकी तीमारदारी करने शराब परोसने वाले नौकर तक भारतीय संगीत के दीवाने हो गए थे। आज भी जावरा के अनेक लोग भारतीय संगीत सुनते हैं।

जावरा रियासत का इतिहास

जावरा रियासत का इतिहास सन 1818 से शुरू होता है। इसके संस्थापक नवाब अब्दुल गफूर मोहम्मद खां थे  जो कि पश्तू नेता मुहम्मद आमिर खान की सेना में घुड़सवार हुआ करते थे। बाद में वह इंदौर के होल्लकर राजा की सेना में ओहदेदार रहे। सन 1818 में मंदसौर की संधि हुई और ब्रिटिश सरकार ने जावरा रियारत की पुष्टि की। तब अब्दुल गफूर खां को जावरा, संजीत, ताल, मल्हारगढ़ और पपलोदा में कर वसूली के अधिकार दिए गए। साथ ही अंग्रेजों ने उनसे अपेक्षा की थी कि लड़ाई के समय जरूरत पड़ने पर 500 घुड़सवार, 500 पैदल,और 4 तोपों के साथ मदद करना होगी। नवाब मुहम्मद इस्माइल खां के शासनकाल सन 1865 से 1895 तक उन्हें ब्रिटिश हुकूतम ने मानद मेजर की पदवी थी प्रदान कर रखी थी। सन 1924 में पिपलोदा एक अलग राज्य बन गया। देश को आजादी मिलने के बाद नवाब उस्मान अली खां के समय 15 जून 1948 को जावरा रियासत भारत सरकार में शामिल कर ली गई। रियासत जावरा ब्रिटिश हुकूमत के दिनों सेंट्रल इंडिया की ट्रीटी स्टेट थी। रियासत में 6 तहसीलें थी। इसमें 329 कस्बे थे। जावरा दो हिस्से में बंटा था।  बड़ा हिस्सा जावरा, ताल, बड़ावदा और नवाब गंज था। दूसरा हिस्सा मल्हारगढ़ और संजीत था। जावरा रियासत का रकबा  602 स्क्वेयर माइल था। सन 1941 में  रियासत की कुल आबादी 116953 हुआ करती थी। रियासत की सीमा रतलाम, पिपलोदा, देवास और ग्वालियर की सीमा को छूती थी। शिवना, रेतम, चंबल, और मलेनी नदियां आज की तरह पहले भी लोगों की प्यास बुझाती थी। जावरा रियासत के नवाब हमेशा ही अंग्रेजों के परम भक्त रहे थे। यही कारण है कि यहां के नवाबों को 13 तोपों की सलामी दी जाती थी। जावरा को पुराने जमाने में जौरा भी कहा जाता था। रतलाम से जावरा 33 किलोमीटर दूर है।

जावरा की हुसैन टेकरी

जावरा की हुसैन टेकरी के प्रति सभी धर्म के लोगों की श्रृध्दा है। इतिहास के मुताबिक जावरा के नवाब मोहम्मद इस्माइल अली खां के समय मोहर्रम और दशहरा एक ही दिन आ गए ऐसे में जुलूस  पहले निकालने की बात पर झगड़े की नौबत आ गई। नवाब ने फैसला किया कि वह पहले दशहरे के जुलूस में शिरकत करेंगे और मोहर्रम का ताजिया दशहरे के जुलूस के बाद निकलेगा। उनकी इस बात पर ताजिएदार नाराज हो गए और जुलूस आधा-अधूरा निकला।

रूहानी खुशबू का अहसास

जैसा कि अनेक लोगों का दावा है कि मुहर्रम के अगले दिन हीरा नामक एक महिला ने देखा कि हुसैन टेकरी की जगह कई रूहानी लोग बजू कर मातम मना रहे हैं। हीरा ने यह बात नवाब को बताई। इस पर नवाब ने ताजियों को फिर से बनवाया और पूरी शानो शौकत से जुलूस निकाला गया। जब यह जुलूस हुसैन टेकरी जहां आज है, उस स्थान पर पहुंचा तो लोगों को रूहानी सुकून देने वाली खुशबू का अहसास हुआ। इस पर नवाब ने जितने स्थान पर खुशबू का अनुभव हो रहा था, उसकी सीमा बनवा दी। इसी स्थान पर एक झरना भी फूट निकला जिसके पानी में नहाने से लोंगों की बीमारियां ठीक होने लगीं। साथ ही यह चर्चा भी होने लगी कि यहां बदरूहों यानी प्रेतबाधा से छुटकारा मिलता है। जैसे-जैसे लोगों को यह बात पता चलने लगी, यहां प्रति गुरूवार के दिन बीमारों का तांता लगने लगा। मोहर्रम के चालीसवें दिन और होलिका दहन के समय यहां होने वाले चेहल्लुम में हजारों लोग शरीक होते हैं। हुसैन टेकरी पर हजरत इमाम हुसैन साहब सहित उनके परिवार के 6 लोगों के रोजे हैं। यहां के मुतवल्ली के मुताबिक इन रोजों के बाहर भूत प्रेतों की हाजरी लगती है और उन्हें सजा सुनाई जाती है। अनेक बार यहां 65 हजार जायरीन भी अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुके हैं। चेहल्लुम के समय यहां सुबह इबादत और दोपहर को खूनी मातम मनाया जाता है तथा रात के समय सैंकड़ों लोग दहकते हुए अंगारों पर चलते हैं। यह हैरतअंगेज दृश्य होता है। हुसैन टेकरी पर जब भूतों की अदालत लगती है तब प्रेतग्रस्त लोग चीख पुकार करते हैं जिसे सुनकर रौंगटे खड़े हो जाते हैं, लेकिन वैज्ञानिक भूत प्रेतों के अस्तित्व को खारिज करते हैं, उनका कहना है कि यह मानसिक बीमारी है और झाड़फूंक अंधविश्वास है। लोग यहां स्थित विभिन्न रोजों पर हाजरी देने के लिए प्रेत बाधाग्रस्त अपने परिजनों को लाते हैं। इस प्रकार यह स्थान मानसिक रोगों के उपचार का केंद्र कहा जा सकता है। यहां भारत ही नहीं विदेशों तक से लोग आते हैं।

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