फेसबुकीय औरतें, हम दोनों के बीच, तुमसे मिलना चाहती हूं मैं, नदी किनारे

फेसबुकीय औरतें

⚫ रेणु अग्रवाल

ढ़लती उम्र में भी सदाबहार
सदाजवान और
ब्याहता होकर भी कई बार तो
मरते दम तक कुमारी बनी
हंसती चहकती इठलाती रहती हैं
अपनी मोबाइलीय दुनिया में
मगन फेसबुकीय औरतें

सास- ससुर देवर-ननंद
भाई बहिन, बच्चे-कच्चे, पतिदेव!
कामकाजी हुई तो अफसर!
सभी की सुनती
सेवा टहल में जुटी रहती लेकिन
चुटकी-दो चुटकी
या कभी छोटी चम्मच
और तो और बड़ी कड़छी बराबर भी
मोबाइल पर अंगुलियाने इत्ता समय
आखिरकार चुरा ही लेती हैं
फेसबुकीय औरतें

मैसेंजर, व्हाट्सअप, इंट्राग्राम और
न हुआ तो कभी कभार
फोन पर भी बतिया-
घर गृहस्थी से शुरू होती
देश दुनिया को समेटती
पाई जाती हैं, फेसबुकीय औरतें

नाते रिश्तेदारों के यहां
मरण-परण, सालगिरह
मुंडन जनेऊ और
यहां तक कि राई-रत्ती बराबर
घटना-दुर्घटना की बात भी
मार्क जुकेरबर्ग को
धन्यवाद बोले बिना पोस्ट
फटाफट कर देती हैं
फेसबुकीय औरतें

गलत-सलत कमेंट्स करने वालों को
डाँटते- डपटते, धमकातेे वक्त़
तमंचे की तरह साड़ी का पल्लू
कमर में खोंस किसी 
हवलदार से कम
नहीं लगती हैं फेसबुकीय औरतें

साल दर साल मोबाइल की
बढ़ती कीमतें हालांकि
नया खरीदने में जरूर
अपनी टांग अड़ाती हैं
लेकिन रिचार्ज का खर्च
न जाने किस जादुई
करिश्में के दम पर
इधर-उधर खींचातान कर
जुटा ही लेती हैं फेसबुकीय औरतें

दिल्ली, मुम्बई, कोलकता
यहां तक कि सिंगापुर
ल्ंदन, अमेरिका, जापान ही नहीं
धरती के इस से लेकर
उस कोने तक-
सखी- सहेलियों, भाई- बंधुओं
प्रेमियों को अपना
सुख-दुख बांट हल्कान हो
खर्र खर्र खर्राटे भर
मार फुसांडे सोती हैं लेकिन
आधी रात बाथरूम से
लौटते वक्त एक बार अपना
व्हाट्सअप और मेसेंजर
चेक करना नहीं भूलती हैं
फेसबुकीय औरतें।

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हम दोनों के बीच

हम दोनों के बीच
नज़दीकियाँ
वैसी ही हैं

जैसी होती है
दिसंबर और जनवरी
के बीच

जैसी होती है
नदी के दो किनारों
के बीच

जैसी होती है
आकाश और
धरती के बीच

जैसी होती है
समुंदर की लहरों
और किनारों के बीच

जैसी होती है
ट्रेन की दो पटरियों
के बीच

जैसी होती है
स्टेशन और
ट्रेन के बीच

जैसी होती है
गोताखोर और
गहरे पानी के बीच

जैसी होती है
मछली और
जाल के बीच!

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तुमसे मिलना चाहती हूं मैं

मैं तुमसे
मिलना चाहती हूं
ठीक-ठीक उसी तरह जैसे
तिल और मूंगफली
गुड़ की चाशनी में मिलकर
एक हो बंध जाते हैं

मैं तुमसे मिलना
चाहती हूं
ठीक-ठीक उसी तरह जैसे
डोर के साथ बंधी पतंग
फूले नहीं समाती और
खुश होकर
आकाश में ठुमके लगाती है
लेकिन कट जाने के बाद
इक दूजे के बिना दोनों
अधूरे रह जाते हैं

मैं तुमसे मिलना
चाहती हूं
ठीक-ठीक उसी तरह जैसे
मोमबत्ती और धागा
एक दूसरे के साथ
जलते और आंसू बहाते हैं

मैं तुमसे मिलना
चाहती हूं
ठीक-ठीक उसी तरह जैसे
कोई नदी वक्त़ के
थपेड़ों को सहकर
अनेक कलंक की पीड़ा
मन में दबाए
समुंदर से जा मिलती है
और वह उसे अपने
आलिंगन में छुपा लेता है
अपने खारे वजूद के बावजूद

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नदी किनारे

उभरती सांझ की
देह पर
ढ़लते हुए सूरज के संग
नदी किनारे बैठना
कितना अच्छा लगता है

लहरों की सुनना
कुछ बातें अपनी
उन्हें सुनाना
बोलना बतियाना
सुख-दुख बाँटना
कितना अच्छा लगता है

फेंक देना कभी कभार
अंजुली में भर अपनी
पीड़ा के कंकड़
बीच नदी की बहती धारा में
सोच-सोच यही कि
समेट लेगी सारी पीड़ा
अपने आंचल में
और छोड़ आएगी
किसी अनंत दिशा में

कुछ आड़ी
कुछ तिरछी रेखाएं
खींचना रेत पर
लिख-लिख मिटाना
अतीत का हिस्सा हुए कुछ नाम
लिखकर मिटाने
कहीं खो जाने का खेल
कितना अच्छा लगता है

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