मुद्दे की बात : रतलाम में जघन्य हत्याकांड और समाज, कर्तव्य के लिए तैनात, सर्वस्व  सौंपने के लिए समर्पित चीते की तरह चपल और तकनीकी रूप से सक्षम रक्षक पुलिस की दरकार है हमें

⚫ सवाल बड़ा यह भी है कि हमारी पुलिस कहाँ है ? उत्तर की कई परतें हैं। जो अंततः यही सत्य स्थापित करेगी कि पुलिस समय के अनुकूल मुस्तेद, असरदार और अपेक्षित स्तर तक स्मार्ट तथा अनुशासित नहीं है। खुद पुलिस में कई सामाजिक बुराइयां है जो सामाजिक चरित्र की निगरानी में महत्वपूर्ण रुकावट है। मैं पिछले दिनों महू केंट सैन्य क्षेत्र में गया तो चप्पा चप्पा में फैले अनुशासन, अपराधहीनता और एक अलग ही प्रकार की शांति देखी। कर्तव्य के लिए तैनात, सर्वस्व  सौंपने के लिए समर्पित चीते की तरह चपल और तकनीकी रूप से सक्षम रक्षक पुलिस की दरकार है हमें ⚫

⚫ त्रिभुवनेश भारद्वाज

पूरे समाज के लिए सोचने का सबब बन जाती है। आदमी के भीतर शाश्वत प्रेम,करुणा,ममता,वात्सल्य और स्वाभाविक दया का इस कदर लोप हो जाए कि वो अपनी पत्नी और मासूम बच्चों को लोमहर्षक निर्दयता से खत्म कर दें।रतलाम की विंध्याचल कॉलोनी की उक्त घटना ने पूरे समाज को झकझोर दिया है ।एक आदमी कैसे इतना कठोर,निर्दयी और शैतान हो सकता है कि अपनी ब्याहता पत्नी और मासूम बच्चों को कुल्हाड़ी से काट दे और शवों को घर के आंगन में ही दफन कर उसी घर में खाना खा सके।हमने कई जल्लादों को सुना है वो फाँसी देने के बाद अपराध बोध के कारण कई दिनों तक सो नहीं सकते।सवाल ये है कि इतनी नृशंसता आखिर आई कहाँ से?एक सवाल यह भी है कि एक जघन्य व्यक्ति को सहयोग करने वाला एक और दोस्त भी मिल जाता है मतलब जघन्य को जघन्य सरलता से उपलब्ध है ।बेशक शराब व्यक्ति को उन्मत्त करती है लेकिन उन्मत्त व्यक्ति को पराकाष्ठा की नफरत शराब नहीं देती ।शराब का काम है होश फ़ना करना लेकिन होश न रहने के बावजूद व्यक्ति निढाल भी हो जाता है,उसमें इतनी शक्ति नहीं रह जाती कि वो बलपूर्वक एक नहीं तीन हत्याओं को अंजाम दे सके ।


कहते हैं माटी का विचार तन्त्र पर बड़ा असर पड़ता है। देश के भिन्न भिन्न मृदाओं के परीक्षण में यह बात सामने आई है कि मिट्टी का प्रभाव व्यक्ति को विनम्र और निष्ठुर बनाता है। मध्य प्रदेश की मिट्टी स्नेहिल और नरम स्वभाव से भरी है। इसलिए यहाँ रहने वाले लोग अधिकांशतः स्वभाव में सहनशीलता अनुभव करते हैं लेकिन उत्तरप्रदेश और बिहार की मिट्टी तुलनात्मक रूप से कुछ निष्ठुर है।उल्लेखनीय है कि निठारी कांड ने नोएडा को नई पहचान दी थी कि एक आदमी सैकड़ों लोगों को मारकर उनका कलेजा निकाल कर खाता है। घृणास्पद अपराध आखिर कितनी घृणा से आया होगा।रतलाम जैसे शहर में इस तरह की घटनाओं का होना गहन विचार करने को विवश करता है कि मनुष्य के मस्तिष्क में मानवीयता के कम होते लक्षणों के क्या कारण हैं और आने वाले सालों में मनुष्य की करुणा और दया अभी किस सीमा तक कम होगी ?एक व्यक्ति का चरित्र समाज का भी तो चरित्र बनता है और एक समाज जब अपनी पहचान किसी एक चरित्र के आसपास खड़ी कर लेता है तो फिर उसका इतिहास भी वैसी ही स्याही कथानकों पर उड़ेलता है।एक घटना दूसरी घटना की प्रेरणा बनती है। मानवीय अंतर्संबंधों के बदलते स्वरूप पर शोध की आवश्यकता है। बहुत उन्नति के नीचे एक गर्त भी सशर्त मिलता ही है।

आज तक हमारा कानून “वांटेड” के बजाय “सस्पेक्ट” को पकड़ने वाला नहीं बना

एक बड़ी बात समझने की यह भी है कि आज तक हमारा कानून “वांटेड” के बजाय “सस्पेक्ट” को पकड़ने वाला नहीं बना है। न मनुष्यों की करतूतों के लिए उनकी ब्रेन स्केनिंग जैसी प्रणाली विकसित हुई है और न हमारी पुलिस हाईटेक और अपडेट हुई है ।अभी पुलिस कोई दस फीसदी साइबर अपराध भी नहीं सुलझा सकती।अपराध के नित नए तरीकों को समझने की कोई ट्रेनिंग भी नहीं ।पुलिस का खौफ कम होने का परिणाम देखिए जिस इलाके में खुद पुलिस रहती है उन इलाकों में भी जघन्य अपराध हो जाते हैं और एक दो दिन नहीं,पुलिस को महीनों पता नहीं चलता कि आसपास कोई बड़ी वारदात हुई है। असफल सूचना तन्त्र और बुरी तरह विफल निगरानी तन्त्र। विंध्यांचल विहार की तरफ़ आज भी रहने को लोग तैयार नहीं है।शहर से दूरी,असुरक्षा और दूसरी कई बातों को देखते हुए लोग अभी भी उस तरफ जाने को तैयार नहीं है।कुछ लोग उस तरफ रहने को तैयार भी हुए तो पुलिस कॉलोनी को देखकर।जहाँ पुलिस रहती है वहाँ अपराधी और अपराध नहीं हो सकता ऐसी धारणा है लेकिन ये धारणा गलत है।इसके लिए पहले इस बात और विचार करने की जरूरत है कि आखिर अपराधियो में पुलिस का खौफ है कितना?कुछ नहीं न।हो सकता है पुलिस एक घटना पर जांच कर रही हो और दूसरी भी इस तरह की घटनाएं हुई हो लेकिन हम क्यों करेंगे शिनाख्त। हमारा काम है जितना काम मिला उतना करना।

उसने समाज के उस विश्वास को काटा

समाज विकृत हो रहा है इसे जितनी जल्दी मान लें उतनी जल्दी इलाज हो सकता है। विचार कीजिए न क्या उस जघन्य अपराधी तिलवाड़ा ने केवल एक बेटी को काटा है या दो बच्चों को काटा है ?नहीं उसने समाज के उस विश्वास को काटा है कि आज ही आदमी कितना भी गिर जाए जानवर नहीं बन सकता।हमारे समाज को फिल्में किस तरह प्रभावित कर रही है उसकी बानगी देखिए ।दृश्यम फ़िल्म के बाद ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं जिसमें हत्या की पड़ताल खुद पुलिस सुप्रीमो नहीं कर सकी और अंत में यह पता लगाने के लिए कि हत्या कैसे की गई और लाश कहाँ छुपाई अपराधी को सजा न देने के वायदे से सच्चाई जानने के लिए दृश्यम 2 फ़िल्म बनाई।यहां से समाज बन रहा है।हम क्यों प्रतिसाद दे रहे हैं जघन्यता को?क्योंकि स्वार्थ ने अनर्थकारी रूप ले लिया है अब आदमी को अपने अलावा किसी की चिंता नहीं।विंध्याचल विहार में कुल्हाड़ी से उस पागल अपराधी तिलवाड़ ने 3 हत्या नहीं की है बल्कि पूरे समाज को ही काट दिया है एक झटके में।एक झटके में प्यार,स्नेह और दया को भी मार दिया ।विचारणीय बात यह भी है ऐसी घटनाओं की शिकार ज्यादातर अपने परिवार से बगावत कर घर बसाने वाली महिलाएं ही हो रही है जिनके साथ खुद उनके पिता माता की सहानुभूति नहीं होती।मतलब लड़कियां सही और गलत का निर्णय करने में नाकाम है।वो यह जांचने परखने भी नाकाम है कि जिसके साथ वो जीवन बांध रही है वो भीतर से इंसान कितना है?

पुलिस समय के अनुकूल मुस्तेद,असरदार और अपेक्षित स्तर तक स्मार्ट तथा अनुशासित नहीं

सवाल बड़ा यह भी है कि हमारी पुलिस कहाँ है ?उत्तर की कई परतें हैं जो अंततः यही सत्य स्थापित करेगी कि पुलिस समय के अनुकूल मुस्तेद,असरदार और अपेक्षित स्तर तक स्मार्ट तथा अनुशासित नहीं है। खुद पुलिस में कई सामाजिक बुराइयां है जो सामाजिक चरित्र की निगरानी में महत्वपूर्ण रुकावट है।मैं पिछले दिनों महू केंट सैन्य क्षेत्र में गया तो चप्पा चप्पा में फैले अनुशासन,अपराधहीनता और एक अलग ही प्रकार की शांति देखी ।मित्र ने बताया कि ये सेना का इलाका है इधर हजारों सिविलियन भी रहते हैं लेकिन चोरी जैसी छोटी वारदात तक नहीं होती,खौफ है सेना का।अपराधियों में खौफ खत्म हो जाना भी बुरी बात है ।अब स्कॉटलैंड जैसी नई पुलिस चाहिए जिनके साथ खड़े होकर सटोरिए चाय पीने की तो सोच भी नहीं सकते। कर्तव्य के लिए तैनात, सर्वस्व  सौंपने के लिए समर्पित चीते की तरह चपल और तकनीकी रूप से सक्षम रक्षक पुलिस की दरकार है हमें।

त्रिभुवनेश भारद्वाज

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