कुछ खरी-खरी : नया साल, नवरात्रि, नए अधिकारी, नई योजनाएं, सब कुछ नया-नया, यानी की नई घोड़ी, नया दाम, पारदर्शिता का नहीं कोई काम

हेमंत भट्ट

रतलाम, 2 अप्रैल। नया साल लगते ही नवरात्रि में नए अधिकारियों का आगमन हुआ। सभी ने अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के लिए कार्यभार ग्रहण कर लिया। चाहे कानून व्यवस्था का पालन करवाना हो या फिर शहर की व्यवस्था, सफाई, सुंदरता सहित अन्य विकासात्मक कार्य हो। चाहे कलेक्टर की गैरमौजूदगी में निर्णय देना हो, सभी अब नए-नए आ गए हैं। यानी कि अब “नई घोड़ी, नया दाम” शुरू होगा। मगर पारदर्शिता नजर आएगी अथवा नहीं यह तो बाद में ही पता चलेगा।

खेलों में तो होता है ऐसा, मगर खेल होते हैं अलग-अलग

सामान्यतया बच्चे पकड़म बाटी और छिपम छई जैसे खेल खेलते हैं और जब खेल के बीच में नया खिलाड़ी आता है। खेलने की मंशा जाहिर करता है तो पहले से खेल रहे खिलाड़ी उसे कहते हैं, अब दाम तेरे को देना होगा। यानी कि उसे खिलाड़ियों को पकड़ना होगा अथवा ढूंढना होगा। मगर खेल का स्वरूप बदल चुका है। कई प्रकार के खेल खेले जाते हैं, जहां पर दाम देना नहीं पड़ता बल्कि मिलता है। खेल जितना बड़ा होगा, उतने बड़े दाम। चाहे फिर बिगाड़ ना पड़े किसी का भी काम। ऐसा करने वाले सबको ऊपर से और मिल जाता है ही ईनाम और सम्मान।

यह तो शहरवासियों के सौभाग्य और दुर्भाग्य पर निर्भर

शहर की सड़कों के लिए अलग-अलग क्षेत्र और वार्ड में लाखों रुपए की सड़क निर्माण की घोषणा हो गई। राशि मंजूर भी हो गई। आंकड़े भी दर्शा दिए गए। मगर गुणवत्ता के बारे में कोई बात नहीं हुई। सड़क की कितनी मोटाई रहेगी। किस प्रकार की सामग्री रहेगी। ऐसा कुछ भी पढ़ने में और देखने को नहीं आया है। न ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि कितनी चौड़ी और कितनी लंबी सड़क बनेगी। लंबाई चौड़ाई के साथ ही किस गुणवत्ता की सड़क में कितनी राशि खर्च होती है। यह पारदर्शिता भी होनी चाहिए लेकिन इसका दूर-दूर तक कोई नाम नहीं है। यानी कि जो सड़क बनेगी वह बारिश के बाद नजर आएगी या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं है। यदि सड़क बारिश के बाद मिल जाती है तो यह शहरवासियों का सौभाग्य रहेगा और सड़क गड्ढे दार हो जाती है तो दुर्भाग्य। मगर जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वालों के लिए तो सौभाग्य ही सौभाग्य है। नई घोड़ी नया दाम की बात चरितार्थ होगी। यह बात दीगर है कि पहले की अपेक्षा यह वाले शहरवासियों के भलाई के लिए, सफाई के लिए, सुंदरता के लिए, सुविधा के कार्य करेंगे अथवा नहीं। यह तो वक्त ही बताएगा।

ना चैन से बैठेंगे न बैठने देंगे

कानून व्यवस्था का पालन करवाने वाले साहेब ने तो जता दिया है कि वे ना तो चैन से बैठेंगे और न ही बैठने देंगे। जो जैसा चल रहा था, वैसा कुछ भी नहीं चलेगा। सबको होशियार कर दिया है। जिनकी छत्रछाया में जिला बदर भी शहर में आराम से घूम रहे थे, उन पर कार्रवाई शुरू हो गई है। यानी कि छोटा हो अथवा बड़ा हो, सब पर समान रूप से कार्रवाई की जाएगी। पहले छोटो की बारी आ रही है फिर बड़ों पर भी होगी। ऐसा संकेत अनेक गुणों से संपन्न नए साहेब ने दे दिया है।

यह तो ठीक नहीं है साहेब

साहेब यह तो ठीक नहीं है कि निजी स्कूल वाले, ट्रस्ट वाले स्कूल मुफ्त में पढ़ाते रहें और आप उनसे शिक्षण शुल्क माफ करवाते रहे। मेडिकल कॉलेज होने के बावजूद निजी अस्पताल में उपचार करवाना कोई जोर जबरदस्ती का काम तो नहीं है। तो फिर राशि माफ क्यों ? वर्तमान दौर में तो कोई भी अंटी ढीली करना नहीं चाहता है लेकिन सुविधाएं फाइव स्टार जैसी चाहिए ही। जो यह सुविधा दे रहे हैं आखिर उन्होंने क्या गुनाह किया है।

तो उन पर मेहरबानियां क्यों

साहेब सुधारना है तो सरकारी स्कूलों दशा सुधार दो, ताकि हर एक वर्ग के लोग जहां पर जाकर शिक्षा ले सकें। स्कूलों में स्कूलों का ही काम होने दो तो बेहतर है। वहां पर लाडली बहना के आवेदन भरवाए जाएंगे तो बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी? परीक्षा कैसे होगी ? यह तो सोचना ही चाहिए। जबकि यह कार्य ठेके पर दिया गया है। कार्य करने वाले को धनराशि मिलेगी तो फिर कार्य करने के लिए सरकारी स्कूल की सुविधा आखिर क्यों दी जा रही है ? यह समझ से परे है, जिनको ठेका मिला है, उन्हें ही यह सारी व्यवस्था करनी चाहिए। आखिर उन पर यह मेहरबानियां क्यों की जा रही है।

जिम्मेदारों की फौज कर रही है मौज

साहेब, जिला चिकित्सालय और मेडिकल कॉलेज अस्पताल की ओर भी ध्यान देना जरूरी है। यहां की पोल पट्टी के कारण ही हर आम और खास निजी अस्पताल की ओर रुख करते हैं जबकि उनके पास इतने पैसे नहीं होते हैं और उन्हें पता भी नहीं होता है कि बीमारी कितनी लंबी चल जाएगी। कितनी राशि खर्च हो जाएगी। ऐसे में कई बार उनकी जमीन तक बिक जाती है, जो आपके पास नहीं आ पाते हैं गुहार लगाने। इसलिए जरूरी है कि सरकारी उपचार देने वालों की दशा और दिशा में सुधार हो ताकि सभी लोग उपचार करवा सकें। कहने को तो मेडिकल कॉलेज अस्पताल बना दिया गया है लेकिन वहां पर जिम्मेदारों की फौज मौज कर रही है। अब तक तो इन संस्थानों को अपने कार्य से इतना प्रसिद्ध कर देना चाहिए था कि लोग निजी की ओर रुख करना बंद कर दें मगर ऐसा कब होगा पता नहीं? मेडिकल कॉलेज और उसके अस्पताल के बाद तो शहर में एक के बाद एक चिकित्सा संस्थान खुल रहे हैं क्योंकि इनके एजेंट जो मेडिकल कॉलेज में बैठ हैं। सरकारी संस्थान को पलीता लगाएंगे और प्राइवेट को शिखर पर पहुंचाएंगे यही मकसद लगता है ऐसे तमाम जिम्मेदारों का।

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