सामाजिक सरोकार : सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह पर चल रही सुनवाई का रतलाम में विरोध के स्वर मुखर, नहीं लगा विराम तो देशभर में आंदोलन
⚫ जागरूक महिलाओं एवं नगर के प्रबुद्धजन उतरे सड़क पर
⚫ महामहिम राष्ट्रपति के नाम कलेक्टर को ज्ञापन सोंपा
हरमुद्दा
रतलाम,28 अप्रैल। सर्वोच्च न्यायालय में चल रही समलैंगिकता की सुनवाई के मुद्दे पर रतलाम में भी विरोध के स्वर मुखर होने लगे हैं। जागरूक महिलाएं और प्रबुद्ध जन गुरुवार को सड़क पर उतर गए। महामहिम राष्ट्रपति के नाम कलेक्टर को ज्ञापन सौंपा। विराम न लगाने की स्थिति में देशभर चरणबद्ध आंदोलन की चेतावनी भी दी।
सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने की माँग में सुनवाई चल रही है। इस संदर्भ में पुरे देश में असंतोष व्याप्त है। भारत में रहने वाले सभी मुख्य धर्मो के धर्मावलंबी इस सुनवाई के विरोध में विचार व्यक्त कर चुके है। किसी भी धर्मानुसार समलिंगी विवाह की कोई व्यवस्था नहीं है,फिर इस तरह की सुनवाई का क्या औचित्य? इस प्रकार की चर्चा भारतीय उच्च संस्कारों एवं परंपराओं के आदर्शवादी वातावरण को दूषित करती है। यही कारण है कि देश भर में इस सुनवाई का विरोध हो रहा है।
ज्ञापन के अनुसार भारत देश आज सामाजिक आर्थिक क्षेत्र के अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है सर्वोत्तम न्यायालय द्वारा सुनने एवं निर्णय करने की कोई गंभीर आवश्यकता नहीं है। देश के नागरिकों की बुनियादी समस्याओं जैसे गरीबी उन्मूलन निशुल्क शिक्षा का क्रियान्वयन प्रदूषण मुक्त पर्यावरण का अधिकार जनसंख्या नियंत्रण की समस्या देश की पूरी आबादी को प्रभावित कर रही है। गंभीर समस्याओं के संबंध में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ना तो कोई तत्परता दिखाई गई है और ना ही कोई न्यायिक सक्रियता दिखाई गई है।
जापान के माध्यम से बताया गया कि भारत में विभिन्न धर्म और जाति, उप जातियों का देश है। इसमें शताब्दियों से केवल जैविक पुरुष एवं जैविक महिलाओं के मध्य विवाह को मान्यता दि है। विवाह की संस्था न केवल दो विषम लेंगे को का मिलन है बल्कि मानव जाति की उन्नति भी है। शब्द ” विवाह ” को विभिन्न नियमों अधिनियम लिखो एवं वीडियो में परिभाषित किया गया। सभी धर्मों में केवल विपरीत लिंग के दो व्यक्तियों के विवाह का उल्लेख है। युवा को दो अलग लैंगिको के पवित्र मिलन के रूप में मान्यता देते हुए भारत का समाज विकसित हुआ है, पश्चातय देशों में लोकप्रिय दो पक्षों के मध्य अनुबंध या सहमति को मान्यता नहीं दी गई है।
विवाह एक सामाजिक कानूनी संस्था है, जिसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 246 के अंतर्गत सक्षम विधायिका द्वारा अपनी शक्ति का प्रयोग कर बनाया गया है। उसे कानूनी रूप से मान्यता प्रदान की और विनियमित किया गया है। मेवा जैसे मानवीय संबंधों की मान्यता अनिवार्य रूप से विधायि कार्य है। न्यायालय विवाह नामक संस्था को न्यायालयीन व्याख्या से विधायिका द्वारा दिए गए विवाह संस्था के मूल स्वरूप ना तो नष्ट कर सकती है ना ही नवीन स्वरूप बना सकती है और ना ही मान्यता दे सकती है।
वही उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में ज्ञापन कर्ताओं ने बताया कि महत्वपूर्ण विषय पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिखाई जा रही आतुरता पर अपनी गहन पीड़ा व्यक्त करते हुए न्याय की स्थापना एवं न्याय तक पहुंचने के मार्ग को सुनिश्चित करने तथा न्यायपालिका की विश्वसनीयता को कायम रखने के लिए लंबित मामलों को पूरा करने एवं महत्वपूर्ण सुधार करने के स्थान पर एक काल्पनिक मुद्दे पर न्यायालयीन और बुनियादी ढांचे को नष्ट उपयोग किया जा रहा है। जो सर्वथा अनुचित है