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साहित्य सृजन : तौफ़ीक

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मंजुला पांडेय

आवारा जिस्त से, सदा ही बहरा रहा हूं।
कौशिशों से ही मुश्किलों को, हरा रहा हूं।।
वाकिफ हूं मिलेंगे, रियाकार गली दर गली।
बा-कोशिश हिम्मत से, उन्हें डरा रहा हूं।।
इश्क के समन्दर को, जीतना आसान नहीं।
बा-वजह डूब कर भी!अब तलक, सहरा रहा हूं।।

दर्दे नकामी से भटक जाऊ मुमकिन नहीं।
इस हौसले जरिये, जश्न दर जश्न करा रहा हूं।
सुना है कोशिशें, होती नहीं नाकाम कभी।
उम्मीद में इसी ! जानिब तीरे, मडरा रहा हूं।।
सोचते हैं वे ! कि उन से घबरा गया हूं मैं।
इश्क के मुताल्लिक़, उनका मोहरा रहा हूं।।
माना की अभी हारा हूं ! कुछ मुद्दों से मंजुल” ।
जिगीषु में, नये अंदाज में मुद्दों को दोहरा रहा हूं।।

मंजुला पांडेय (पिथौरागढ़)
उत्तराखंड

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