धर्म संस्कृति : अपने दोषों का दर्शन और परिमार्जन करना ही साधुत्व
⚫ आचार्य प्रवर विजयराजजी मसा ने कहा
⚫ छोटू भाई की बगीची में हुए प्रवचन
⚫ दुर्मती से होते है पर दोषों के दर्शन
हरमुद्दा
रतलाम,05 जुलाई। आप किसी पर उंगली उठाते हो, तो तीन अंगुलिया अपनी तरफ उठती है। ये इस बात का संकेत है कि अपनी तरफ तीन गुना देखो, फिर दूसरों पर उंगली उठाओ, लेकिन मनुष्य स्वयं को देखता नहीं और दूसरों के दोष निकालने में ही लगा रहता है। ये दुर्मति का दूसरा दोष है। दुर्मती दुश्मनी पैदा करती है, तो दूसरों के दोष भी दिखाती है। वेशभूषा धारण करना साधुत्व नहीं होता, अपितु अपने दोषों को देखना और उनका परिमार्जन करना ही साधुत्व है।
यह बात समता शीतल पैलेस छोटू भाई की बगीची में परम पूज्य प्रज्ञा निधि युगपुरूष आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कही। श्री हुक्मगच्छीय साधुमार्गी शान्त क्रांति जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में चातुर्मासिक प्रवचन देते हुए उन्होंने कहा कि स्वदोषों का परिमार्जन ही जीवन का सार होता है, लेकिन संसार में अनादिकाल से दूसरों के दोष देखने परंपरा चली आ रही है। व्यक्ति अपने दोष देखेगा, तो खुद को बदल सकता है, लेकिन दूसरों को कभी बदल नहीं सकता।
स्वदर्शन ही आत्म कल्याण का मार्ग
उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति को कांटे मिलने पर जूते, बीमारी में डाक्टर, मुकदमे में वकील याद आता है, लेकिन परदोषों की चर्चा जब होती है, तो परमात्मा याद नहीं आते। परमात्मा ने परदोषों के दर्शन का अधिकार किसी को नहीं दिया है, स्वदर्शन ही आत्म कल्याण का मार्ग है। परदोष देखने से घर, परिवार और संसार कहीं भी शांति नहीं रहती है, इसलिए मनुष्य को हमेशा खुद को देखना चाहिए।
जैसा देखोगे वैसा ही होगा
आचार्यश्री ने कहा कि सुदृष्टि का जागरण ही सम्यक दर्शन है। कुदृष्टि मिथ्या दर्शन कराती है, इसलिए उसका त्याग करना चाहिए। सुदृष्टि होगी, तो परदोषों के दर्शन नहीं होंगे। वर्तमान में तनाव बढने का बहुत बडा कारण परदोषों का दर्शन है। पिता, पुत्र के, सास, बहु के और मालिक, नौकर के दोष देखने में लगा रहता है, जबकि इससे आत्मा भारी होती है। यदि आत्मा को हल्का रखना है, तो खुद के दोष देखना चाहिए। विज्ञान भी कहता है कि व्यक्ति जैसा देखता है, वैसा ही होता है। निर्दोष बनने के लिए स्वयं को देखना आवश्यक है, क्योंकि जो खुद को देखेगा, वहीं अपने आप को सुधार सकता है। आचार्यश्री से पूर्व उपाध्याय, प्रज्ञारत्न श्री जितेशमुनिजी मसा एवं विद्वान सेवारत्न श्री रत्नेश मुनिजी मसा ने संबोधित किया। संचालन हर्षित कांठेड द्वारा किया गया।