शख्सियत : मानवीय करूणा बचाए रख सकती हैं कविताएं : गरिमा नाथ
⚫ आज भारत में लिखी जा रही कविता विश्व में लिखी जा रही कविता के समकक्ष है। कविता में ताकत है कि वह हताशा के क्षणों में उम्मीद का संचार कर सकती है। धर्म तो चूंकि गरीब की आह है, तो अफीम भी, वह तो उसे सुलाता है। जबकि कविता मनुष्य को जगाती और प्रेरित करती है। ⚫
⚫ नरेंद्र गौड़
‘‘आज लगभग हर कवि यही कहता मिलेगा कि वह मनुष्यता के पक्ष में लिखता है। कविता संकलनों के ब्लर्ब पर भी यही लिखा मिलता है कि ये मनुष्यता के पक्ष में लिखी कविताएं हैं। जहां तक मेरी जानकारी हैं, मुझे एक भी कवि ऐसा नहीं मिला जो कहता हो कि वह मनुष्यता के विरूध्द लिखता है। तब तो मैं भी यही कहूंगी कि मैं मनुष्यता के लिए ही नहीं, मानवीय करूणा को बचाए रखने के लिए लिखती हूं।’’
यह बात आधुनिक उड़िया और हिंदी कविता की सशक्त हस्ताक्षर गरिमा नाथ ने कही। इन्होंने विष्णु खरे की इस बात से सहमति जाहिर की है कि आज भारत में लिखी जा रही कविता विश्व में लिखी जा रही कविता के समकक्ष है। कविता में ताकत है कि वह हताशा के क्षणों में उम्मीद का संचार कर सकती है। धर्म तो चूंकि गरीब की आह है, तो अफीम भी, वह तो उसे सुलाता है। जबकि कविता मनुष्य को जगाती और प्रेरित करती है। मालुम हो कि बहुत से रचनाकार हिंदी में भी लिखने लगे हैं, इनमें बहुत तेजी से उभरता हुआ नाम जिला बरगड, बरपाली की ़कवयित्री रेणु अग्रवाल का है जिनका संकलन ’एक और राधा’ चर्चित हो रहा है।
उड़िया लेखकीय परंपरा अति प्राचीन
इनका कहना है कि उड़िसा में साहित्य सृजन की जमीन उर्वरा रही है। 1500 ईसवी तक उड़िया साहित्य में देवी- देवताओं का चित्रण ही प्रमुख हुआ करता था और साहित्य संपूर्ण रूप से तुकांत पदावली पर आधारित था। उड़िया भाषा के प्रथम महान कवि झंकड़ के सारला दास रहे जिन्हें ’उडिया के व्यास’ के रूप में जाना जाता है। इन्होंने देवी की स्तुति ’चंडी पुराण’ तथा ’विलंगा रामायण’ की रचना की है। इनके व्दारा रचित ’सारला महाभारत’ आज भी उड़िसा के घर-घर में पढ़ी जाती है। अर्जुन दास व्दारा रचित ’राम विभा’ को उड़िया भाषा का प्रथम गीत काव्य या महाकाव्य माना जाता है। उड़िसा के साहित्य को आदियुग, मध्ययुग तथा आधुनिक युग में विभाजित किया जा सकता है। इस काल के प्रमुख रचनाकार राधानाथ राय एवं उड़िया के उपन्यास सम्राट फ़कीर मोहम्मद सेनापति हैं। इनके अलावा मधुसूदन राय, गंगाधर मेहेर, गोप बंधुदास भी उल्लेखनीय हैं जिन्होंने सत्यवादी युग का प्रवर्तन किया। कवि मायाधर मानसिंह ने रोमांटिक युग का प्रवर्तन किया। इस दौर के प्रमुख कवि कालिंदी चरण पाणीग्रही, वैकुंठनाथ पट्टनायक, हरिहर महापात्र, शरच्चंद्र मुखर्जी आदि हैं। इसके बाद प्रगतियुग या अत्याध्ुनिक युग आता है। सच्चिदानंद राउतराय इस सुग के प्रसिध्द रचनाकार हैं। इनके अलावा हलधर नाग, वीणापाणि महंति, शांतनु आचार्य, सीताकांत महापात्र, प्रतिभा शतपथी, रमाकांत रथ, तपनकुमार प्रधान का नाम उड़िया रचनाकारों में आदर के साथ लिया जाता है।
भाषा के प्रति अत्यंत मोह
भाषा में संकलन ‘लो रेब’ पश्चिमा पब्लिकेशन, नयापल्ली, भुवनेश्वर से 2020 में छपा और चर्चित हो रहा है। अमेजान पर भी यह उपलब्ध है। इसके अलावा इनकी उड़िया रचनाएं संवाद, प्रमेया, धरित्री, निशान, अमृत्यायना, पहाचा, महुरी, समरोहा, आनंद, नीतिदिना आदि बीसियों पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। स्कूटी चलाते समय एक्सीडेंट होने के कारण गरिमाजी विगत एक माह से चल फिर नहीं पा रही हैं, लेकिन भी उनकी लेखकीय गतिविधियां लगातार जारी हैं। उनके अदम्य साहस, कार्यक्षमता और अभिव्यक्ति की बचैनी को भी इन कविताओं देखा जा सकता है। खासकर ’कैद है उड़ान मेरी’ कविता में।
गरिमा नाथ की चुनिंदा कविताएं
कै़द है उड़ान मेरी
ये जिंदगी
थोड़ा-सा रहम कर
मुट्ठी ढ़ीली कर थोड़ी-सी
कैद है उड़ान मेरी
तेरे हाथों में
कल जब आएगी बारी मेरी
हैरान हो जाओगी
देखकर मेरी आजादी
छत्रछाया है तेरे ऊपर तो
दिखा रही मुझे कीचड़ की राह?
लेकिन याद रख!
नए पंख उगते ही मैं
उड़ जाऊंगी दूर
तेरी उम्मीद से
कहीं अधिक दूर-
सोचते रह जाएगी मैं
कोई परिंदा नहीं
ये हवा का झोंका था
मैं मुट्ठी में क़ैद होने वाली नहीं
मुझे गिला शिकवा नहीं तुझ से
तू तो जिंदगी है
अरे! मैं तो ख़फा हूं खुद से
और अपने खु़दा से!
नाराज हूं मैं तो पूरे
जमाने से और
सब्र का फल यहां
मीठा नहीं, दर्द देने वाला
मिलता आया है
लेकिन फिर भी न रूठी हूं
न रूठूंगी तुझ से
ए जिंदगी तेरे पिंजरे की क़ैद से
मुक्त होने में ही है बहादुरी
वक्त़ है मेरे हाथ
आसमान भी मेरे साथ
फितरत है उड़ना परिंदों की
उड़कर जरूर दिखाऊंगी!
यूं ही तुम
यूं ही तुम जीते रहो
अपना किस्सा खुद को
सुनाते रहो
और खुद ही उसे सुनते रहो
सीने में राज दफना दोगीे तो
तुम कहलाओगी दुनिया में
ईश्वर की प्रेमिका
जो कभी हारी है और न हारेगी!
सुबह चलते-चलते
रोज सुबह चलते-चलते
टकराती हैं यूं नजरें
जैसे होता है
हवा के झोंकों से
टकराना आपस में फूलों का
उनके खिलने के वक्त़
आंखों ही आंखों में होती है बात
और उसी बीच दूर खड़े
एक पेड़ पर गुफ्त़गू
कर रहे पंछियों का कहीं
ख़बर तो नहीं हो रही न!
हमारे इशारों की?
उसे देखते ही सारे फूल
अपने रंग और चमक
बिखेरते हैं मुझ पर
ताकि मैं नजर आऊं उसे
और अधिक चंचल और शोख
आपस में नजरों का मिलना
और फिर मिलते ही
पलकों का झुक जाना
हवाओं को मंजूर नहीं शायद
मेरा उससे यूं छिपना
मेरे बदन की खुशबू का
एक झोंका बहका देता है
पहुंचकर उस तक
डसके माथे से गर्दन तक
टपकता हुआ पसीना
बढ़ा देते हैं मेरे कदम
कि जितना हो सके जल्दी
पहुंच जाऊं उस तक
एक झलक पाने के लिए
कितना इंतजार रहता है?
यह केंद्र बिंदू जहां घुमा फिरा के
मिलाता है रास्ता
हमारे कदमों की आहट शायद
महसूस करती होगी
हमारी बेचैनी को!
पंाव के नीचे की जमीन को भी
सुकून मिल रहा होगा जहां
कदमों से कदमों का मिलन
हो रहा होगा!
हम मुड़ते हैं
पीछे उनको निगाहों में
करने के लिए कै़द
लेकिन वह हवा के एक
झोंके की तरह निकल जाते हैं
पास हो कर भी कितनी-
कितनी दूर।
तपती धूप
यूं न पूछो हमसे
मौसम की खबर
हम बेखबर हैं
गर्मी, बारिश और सर्दियों से
आप पूछ रहे हैं-
तापमान कितना आज का
हम सालों से ही तपती धूप में
अपना और अपनों का पेट भर
गुजारा करते हैं
आपको डराती है धूप
बाघ सरीखी
आओ न!
हम तो बाघ के भी बाप
बनते आए हैं अपने दादा
परदादा के जमाने से
बरफ का सहारा लेते हो आप
गर्मी के दिनों में
लेकिन हम पसीना बहाते हैं
अपने बदन का
आपको एसी की
जरूरत होती है न!
हमारे लिए वही सवाल बन
खड़ा है कि वह एसी है क्या?
सुना है!
गर्मी के मौसम में आपके
कपड़े कुछ अलग होते हैं?
लेकिन श्रीमान!
हम तो वही फटे पुराने
कपड़ों में ही गुजर बसर
और स्वागत करते हैं
गर्मी के मौसम का
उन दिनों हमारे कपड़े
बदन से फेवीकॉल की तरह
चिपचिप करते बदन से
चिपक जाते हैं
आप लेते हो उन दिनों
जूस और किसम- किसम के
फ्रूट्स और आइसक्रीम!
और भी न जाने क्या-क्या
हमें तो पता तक
नहीं उनके नाम!
हम तो कभी भूख
पालते हैं अपने पेट में
कभी भूख मिटाने
चले जाते हैं तपती धूप में
न पूछो हमसे मौसम का हाल
जैसा आज है
कल वैसा ही रहेगा श्रीमान!
एक कविता चलते-चलते
अरे गरिमा!
तुम ही तुम जीतती रहो!
अपना किस्सा खुद ही
खुद को सुनाती रहो
अपने सीने में राज़
दफना दोगी तो तुम कहलाओगी
दुनिया में ईश्वर की प्रेमिका
जो न कभी हारी है
न हारेगी।