व्यंग्य : जाते-जाते सक्रिय होना
⚫ आशीष दशोत्तर
⚫ सूखे के अवसादों से अभी तक बाहर नहीं आए बूढ़े कह रहे थे, ‘दिया बुझने के पहले भभकता है, बादल चुकने के पहले बरसता है, नासमझ ठोकर लगने पर संभलता है।’ ऐसी सभी बातों से बेपरवाह बादल बरस रहे थे। उन्हें पता है कि जाते- जाते सक्रिय होने से सूखे के सितम भुला दिए जाते हैं। दहकते दिनों के दर्द पर मरहम लगाने का काम भी इसी बहाने होता है।⚫
समय पर जो निष्क्रिय रहते हैं वे जाते-जाते सक्रिय होते हैं। अपने इधर जाते-जाते सक्रिय हुए मानसून को ही देख लीजिए । रूठे बादल गरजे और बरसे भी। बरसे ही क्या, जमकर बरसे। पानी-पानी चिल्लाने वालों पर मेहरबान हो कर बरसे। दिन-रात कोसने वालों पर बरसे। जो भरे भराए थे उन पर भी बरसे। जो तृप्त थे उन पर भी बरसे। जाते-जाते बादलों ने बरसने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आते-आते और आने के बाद से अब तक जिस-जिस को तरसाते रहे , जिन पर तरस खाते रहे , उन पर बरसने का यह अद्भुत अवसर था।
अब तक जो लोग बादलों की बेरहमी के बारे में तरह-तरह की बातें करते रहे, बादलों के बारे में भली-बुरी बातें सोचते रहे , बात-बात पर बादलों को कोसते रहे , वे बादलों की मेहरबानी पर अचंभित थे । उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि इतने समय से ढोल बजाते रहे, बादलों को रिझाने के लिए आवाज़ लगाते रहे, जाने कैसे-कैसे जतन करते रहे ,लेकिन बादल टस से मस नहीं हुए। कभी अपना जलवा दिखाकर ग़ायब होते रहे । कभी अकड़ कर सामने से गुज़रते रहे। कभी मुंह देखकर आश्वासनों का तिलक लगाते रहे , कभी अपना मुंह दिखाकर ओझल होते रहे। आज देखिए । बिन मांगे ही सब कुछ मिल रहा है। सही कहा है किसी ने, ‘बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख’। बेकार ही इतने समय से मांग-मांग कर अपनी मांगे सूनी कर रहे थे। अब अपने आप मांग भरा रही है।
सभी को आश्चर्य हो रहा था कि आख़िर यह बादलों को क्या हो गया है? बड़े-बूढ़े कह रहे थे , जाते-जाते ऐसा बरसना हमने इतनी उमर में कभी नहीं देखा । आने के बाद से गाहे-बगाहे बरसने से तो हम सभी वाकिफ़ थे, मगर जाते-जाते इतना बरसना, इस तरह बरसाना , हद से ज़्यादा बरसना अद्भुत है। सूखे के अवसादों से अभी तक बाहर नहीं आए बूढ़े कह रहे थे, ‘दिया बुझने के पहले भभकता है, बादल चुकने के पहले बरसता है, नासमझ ठोकर लगने पर संभलता है।’
ऐसी सभी बातों से बेपरवाह बादल बरस रहे थे। उन्हें पता है कि जाते- जाते सक्रिय होने से सूखे के सितम भुला दिए जाते हैं। दहकते दिनों के दर्द पर मरहम लगाने का काम भी इसी बहाने होता है। बादल सभी पर मरहम लगा रहे थे । जो ज़ख्मी नहीं हैं, उन पर भी मरहम लगा रहे थे। यह सूखे जीवन में हरियाली लाने और ज़ख्मों को सहलाने का अवसर था। जाते जाते सक्रिय हुए बादलों का चर्चा घर -घर था।
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