साहित्य सरोकार : “गीतों में लोक परंपराए”
⚫ गीता सिंह “शंभुसुता”
आचार-विचार और व्यवहार ही हमें सभ्य बनाते हैं। यही सभ्यता धीरे धीरे परंपरा और कालांतर में संस्कृति बन जाती है। हमारे लोक-व्यवहार और परंपराओं के पीछे का उद्देश्य लोकगीतों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। जीवन की मौलिक आवश्कता ही व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं करती। व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए ललित कलाओं का समावेश अनिवार्य है।
भारत पर्वों का देश है और ये पर्व जीवन में खुशहाली के लिए बनाए गए होंगे। वर्ष के बारहों महीने और प्रत्येक महीने में चार त्योहार तो मनाया ही जाता है। फागुन में होली के त्योहार में बूढ़े बच्चे युवा सभी के मन में लहर उठती है।प्रत्येक मन गीत गाता है और ऊर्जा से भर जाता है। एक दूसरे को रंग लगाकर संबंधों को नए ढंग से सवार दिया जाता है। पुराने मन के मालिन्य मिट जाते हैं। आषाढ़ से भादौ माह के बीच धरती आकाश प्रसन्नता में डूब जाते हैं। इस प्रसन्नता में मनुष्य मन भी रागात्मक हो जाता है। झूला, कजरी, तीज, अनंता, हरितालिका, कितने ही उत्सव हम मनाते हैं। सावन में प्रकृति अपना नवीन श्रृंगार करती है और शिव प्रकृति के देवता हैं। पर्वत शिव का आवास, वन उनकी क्रीड़ा भूमि,नदी जटाओं से निकलती है। सांप, बैल, चूहा, मोर उनके परिवार के सदस्य हैं। वे प्रकृति के विराट रूपक हैं। तभी तो कजरी गाई जाती है…
शिव जी ब्याहन आए गौरा की नगरिया,
खबरिया सुनि पाई सखियां ,
बाघबर मृग छाला ओढ़े,गले मुंड की माला,
उनकी जटा बिराजे गंगा की लहरिया…
भूत प्रेत सब बने बाराती, कीरा गोजर चले संघाती,
नगवा गले में लिपटा मारई फुफकारिया
चतुर्मास हमारी भारतीय परंपरा में आध्यात्मिक और लौकिक दोनो ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। ईश्वर भी शयन को चले जाते हैं और ऋषि मुनि भी भ्रमण करना बंद कर देते हैं ताकि उनके पैरों से दूब तक न कुचली जाए। ये चौमासा जलचर गोचर सभी के जन्म और विकास का काल होता है। प्रकृति के इस अद्भुत रूप सिंगार पर मुग्ध होकर वियोगिनी स्त्रियां गीतों के माध्यम से अपने उद्गार व्यक्त करती हैं…
केही पे करूं सिंगार मोरी सखियां,
पिया मोर छाए विदेशवा ना ।
सावन भादों घम घम बरसई,
सजनी कन्ता अंतई बसई,
टप टप चुवई नयनवा ना।
इन त्योहारों पर लड़कियां मायके बुलाई जाती हैं। पुराने समय में इस तरह संचार-व्यवस्थाएं नही थीं। मायके से अधिक संपर्क नहीं हो पाता था। इसीलिए यह रीती बनाई गई कि, लड़कियां अपना पहला त्योहार नैहर में बिताए।
कागा भइया से कहिहा सनेसवा,
नयनवां दुवार लागे हों
इस तरह लड़कियां प्रतीक्षा करती थीं। उम्र के साथ नैहर आना कम हो जाता था किंतु यादें आती थीं और काम करते करते गीत गाती हैं…
अबके बरस भेजो भइया के बाबुल,
सावन में लिहो बुलाए री,
ससुरे से आवै जो बचपन की सखियां,
दिहौ सनेसा पठाई री ।
स्त्री का सम्मान ससुराल में तभी अधिक होता है जब मायके में बराबर उसकी पूछ बनी रहती है। यदि मायके से कमजोर है तो ससुराल में ताना उलाहना खाती है। अपना दुख अपनी मित्रवत नंद से कहती है…
सावन भदौआं के ओरी चुवै ननदी,
की वैसे चुवइ नैना दुई हमार छोटी ननदी.
जेठ तपई ननदी, आषाढ़ तपई ननदी,
की वैसई तपै ससुरु हमार छोटी ननदी
माता पार्वती भगवान शंकर की तपस्या में लीन थीं। भादौ माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को उन्हे भगवान ने दर्शन दिया। यह हरतालिका ब्रत तब से सभी ब्याही अनव्याही लड़कियां करती हैं। अपने सुहाग की अमरता के लिए सभी स्त्रियां नख-शिख सिंगार करती हैं। यह समस्त सिंगार- सामग्री मायके से आती है। यह परंपरा भी इसीलिए बनी ताकि लड़कियों का संपर्क मायके से बना रहे। रक्षा बंधन पर भाई- बहन एक दूसरे से मिलते हैं। बात एक कोमल धागे की नहीं, बात बचपन से लेकर आज और आगे भी भावनाओं को जोड़ने की है।
आज मोबाइल का युग है। हम अपने प्रियजन से जब इच्छा हुई बात कर लेते हैं। पुराने समय में एक महीना चिठ्ठी ही आने जाने में लग जाता था। अक्सर एक ही गांव या आस पास में कई लड़कियों की शादी होती थी। कोई भी अपनी बेटी के यहां जाता तो सभी लड़कियों के यहां मिलने जाता था। सावन भादौ का महीना विरहिन के लिए अत्यंत चिंता का समय होता है। परदेशी प्रीतम आया नहीं। खपरैल घर और छप्पर चू रहा है। कौन छवाएगा। चिंतित नायिका प्रत्येक पथिक से अपने प्रिय को संदेश भेजती है। यहां तक कि पवन और पंछी से भी…
हमरो सनेसा लिए जाहू री बटोहीया
अरे अरे कारी बदरिया यहां मत बरसहू,
बदरी बरसहु ओही देशवा, पिया जहां छाए
इस तरह सावन भादौ के महीने में प्रकृति अपने निखार पर होती है और हम अपना उद्गार गीतों के माध्यम से व्यक्त करते हैं। इन गीतों में संपूर्ण भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है।
⚫ गीता सिंह “शंभुसुता”
प्रयागराज, उत्तरप्रदेश