शख्सियत : आदिवासी समाज की तकलीफ उजागर करना लेखकों का दायित्व

उरांव जनजातीय कवयित्री डॉ. विश्वासी एक्का का कहना

नरेंद्र गौड़

’आज देश के तमाम आदिवासी लगभग एक जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। उनमें ऋणग्रस्तता, भूमि हस्तांतरण, बेरोजगारी,  स्वास्थ्य जैसी अनेक समस्याएं हैं जो शिक्षा से प्रभावित होती हैं। जनजाजीय समूहों में  औपचारिक शिक्षा का प्रचार प्रसार बहुत कम हुआ है। प्रभुवर्ग व्दारा उन्हें उनके जंगलों से  लगातार बेदखल कर उनकी आय के प्रमुख स्रोतों पर कब्जा किया जा रहा है। आदिवासियों को महज वोट बैंक नहीं समझा जाना चाहिए, वरन उनकी मूलभूत समस्याओं का आकलन कर निराकरण के प्रयास होना चाहिए।’


यह बात छत्तीसगढ़ की उरांव आदिवासी कवयित्री डॉ. विश्वासी एक्का ने कही। इनका मानना है कि सभ्य समाज आदिवासियों को एक खास किस्म के कौतुहल पूर्ण नजरिए से देखता आया है और उनके व्दारा बनाई गई सामग्री को अपने ड्राइंग रूम में सजाकर कलात्मक रूचि का दिखावा करता है। वहीं राजनीतिक पार्टियां इनका इस्तेमाल वोट बैंक की तरह करती हैं। चुनाव के दिनों वादों के झूठ बोले जाते हैं, जिन्हें बाद में भुला दिया जाता है।

आदिवासी जीवन में काव्यात्मक लय

एक सवाल के जवाब में इनका कहना था कि नृत्य, गीत, लय, रस और गति से भरपूर आदिवासी जीवन अपनी संपूर्णता में काव्यात्मक ही है। कविता सिर्फ रस की अनुभूति, सुंदरता का अर्थ बताने और मात्र मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा के लिए नहीं होती। वह असल में सुंदरता की परिधि से बाहर समूची सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है। जिसे गाते तो सभी हैं, पशु पंछी, जंगल पहाड़, वनस्पतियां, नदियां, झरने, बादल, बारिश, हवाएं, सूरज, चांद, सितारे और इन सभी के साथ मनुष्य भी, लेकिन हम सिर्फ मनुष्यों की भाषा जानते हैं। इसलिए सृष्टि के अन्य तत्वों के गीत और काव्य को नहीं समझ पाते हैं। कविता की समझ को लेकर मूल अंतर यही है।

नृत्यों में अभिव्यक्त जीवन की लय

डॉ. एक्का का कहना था कि आदिवासी समाज भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए बेचैन रहता है और वह भी वस्तुयथार्थ से उव्देलित होता है, उसकी संवेदनाएं उसे यथार्थ से सम्बध्द करती हैं। आदिवासी समाज अपने भावों की अभिव्यक्ति घरों के बाहर मांडने बनाकर, लोकगीतों ही नहीं बांसुरी तथा मांदल जैसे वाद्य बजाकर भी करना जानता है। उनके नृत्यों में जो थिरकन हुआ करती है, वह जीवन की लय है। डॉ. एक्का का कहना है कि आज हिंदी सहित अन्य भाषाओं के रचनाकारों की तुलना में बहुत कम आदिवासी लेखक है जो अपने समाज की धड़कन पहचान कर रचनाओं के जरिए तथाकथित सभ्य समाज के सामने लाने के प्रयास कर रहे हैं।

बहुत कम हैं आदिवासी रचनाकार

डॉ. एक्का ने बताया कि मेरे अपने क्षेत्र के आदिवासी रचनाकारों में वंदना टेटे, हरिराम मीणा, महादेव टोप्पो, आईवी हांसदा, कुसुम माधुरी टोप्पो, जसिंता केरि कट्टा, अनुज लुगुन और निर्मला पुतुल के नाम लिए जा सकते हैं। इनकी अनेक रचनाएं आदिवासी समाज के दर्द की अभिव्यक्ति और उनके साथ रागात्मक संबंध की पड़ताल देखी जा सकती है, लेकिन फिर भी आदिवासी समाज से बहुत कम लेखक आए हैं। इसका कारण यह कि इस समाज में शिक्षा का आज भी अभाव है और दूसरी वजह शहरीकरण जिम्मेदार है। आदिवासी युवक युवतियां पढ़ लिखकर अपने समाज और जड़ जमीन से दूरियां बना लेते हैं, यहां तक कि वह अपने रिश्तेदारों के लिए भी अजनबी हो जाते हैं। फैशन और आधुनिकता की चकाचौध उन्हें अपने समाज से ही दूर ले जाती है और वह एक किस्म का आभिजात्य जीवन अपना लेते हैं।

सभ्य समाज की नजरों में आदिवासी

डॉ. एक्का का कहना था कि सभ्य समाज की नजरों में आदिवासी का मतलब वह आदमी औरत जो कम से कम मजदूरी लेकर शहरों में सड़कें बनाने, भवन निर्माण करने, रेल की पटिरियां बिछाने जैसे काम में दिन रात घानी के बैल की तरह जुते रहते हैं। आदिवासी का मतलब एक ऐसा समाज जो होली त्योहार के आसपास अपने गांव घर लौट आता है और भगोरिया हाट के रंग में रंग जाता है। बरसों तक सभ्य समाज झाबुआ क्षेत्र के आदिवासियों की घोटलू परंपरा को कौतुहल भरी नजरों से देखता रहा और ताकझांक करता रहा।

आदिवासियों पर लघु फिल्म

एक सवाल के जवाब में डॉ. एक्का ने बताया कि अपने समाज की समस्याओं को उजागर करने के लिए महाराष्ट्र के नंदूबार जिले के धाड़गांव ब्लाक के दस अल्प शिक्षित युवाओं के दल ने एक लघु फिल्म बनाने का अनुकरणीय और कष्ट साध्य काम किया है और आश्चर्य यह कि इस वीडियो का फिल्मांकन और सम्पादन केवल मोबाइल फोन पर किया गया है। यह फिल्म उनके यूट्यूब चैनल ’आदिवासी जनजागृति’ पर देखी जा सकती है। यह फिल्म बालश्रम पर आधारित है। इस फिल्म के निर्माताओं में शामिल अनिल लुहार का कहना है कि हम ऐसी फिल्मों के निर्माण में लगे हैं ताकि अपने समाज की तकलीफों से सभ्य समाज को अवगत करा सकें। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आजादी के बरसों बीत जाने के बावजद भी आदिवासी समाज उपेक्षित, शोषित और पीड़ित नजर आता है।

पाठ्क्रम में शामिल डॉ. एक्का की रचनाएं

यहां उल्लेखनीय है कि प्रगतिशील लेखक संघ की प्रांतीय सचिव मंडल में शामिल डॉ. विश्वासी एक्का उन आदिवासी रचनाकारों में शामिल हैं जिनकी रचनाएं पाठ्यक्रम में शामिल की गई हैं। महात्मा गांधी विश्वविद्यालय कोट्टायम केरल के बीए और एमए पाठ्यक्रम में इनकी कविताएं पढ़ाई जाती हैं। इतना ही नहीं इनके स्वयं के शहर के एक महाविद्यालय में स्नातक के छठे सेमिस्टर में भी डॉ. एक्का की कविताएं पढ़ाई जा रही हैं। इसके अलावा सम्भव है कि इलाहबाद विश्वविद्यालय में भी इनकी कविताएं शामिल की जाएं।

रचनाओं को लेकर शोधकार्य

एक और विशेष बात यह कि इनकी कविताओं पर शोध कार्य भी किए जा रहे हैं। अनंतपुर रीवा के प्रो. सेवाराम त्रिपाठी ने इनकी कविताओं के विभिन्न आयाम की गहन पड़ताल करते हुए आलेख लिखा है जिसमें उनका कहना है कि डॉ. एक्का की रचनाओं की भाषा सहज सरल और स्पष्ट पारदर्शी होती है। अनुभवों को सजगता और सरलता से व्यक्त करने के मामले में इनकी लेखनीय क्षमता पाठकों को अभिभूत कर देती है। इसी प्रकार भेल भोपाल के शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय की प्राध्यापक पुनीता जैन ने भी डॉ. एक्का की पुस्तकों को लेकर बहुत मेहनत के साथ ’परंपरा और आधुनिकता का सचेत काव्य स्वरः विश्वासी एक्का‘ शीर्षक से शोध आलेख लिखा है। इनका कहना है कि आदिवासी समाज की तकलीफ को जिस शिद्दत के साथ डॉ. एक्का ने उजागर किया है वह दुर्लभ है। इनमें कवि अपने जनजातीय समाज की पीड़ा को अभिव्यक्ति के लिए उव्देलित नजर आता है और काव्य संवेदनाएं उस समाज के यथार्थ की भीतरी तहों तक पाठकों को ले जाकर छुपी सच्चाई से रूबरू कराती है।

चर्चा का केंद्र बनें दो कविता संकलन, उपन्यास

बटईकेला, सरगुजा (छत्तीसगढ़) में जन्मी विश्वासी एक्का हिंदी में एमए पीएचडी हैं और शासकीय राजमोहिनी देवी कन्या स्नाकोत्तर महाविद्यालय अम्बिकापुर सरगुजा में सहायक प्राध्यापक हैं। इनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित तथा चर्चित हैं जिनमें कहानी की पुस्तिका कजरी, दो कविता संकलन ’लछमनिया का चूल्हा’ और  ’मौसम को बदलना था’, उपन्यास ’कुहुकि कुहुकि मन रोय’ प्रकाशित हुए हैं। आप भोपाल के भारत भवन, दुर्ग, रायपुर सहित अनेक मंचों से रचनापाठ कर अपने आदिवासी समाज की तकलीफों को उजागर करने की जिम्मेदारी का निर्वाह करती रही हैं।

डॉ. एक्का की कविताएं

सूख गया क्यों आँखो का पानी

बादल सजल हैं
लोग जड़ हो गये हैं
मणिपुर जल रहा है
बादल धार-धार रो रहे हैं
कहीं राजधानी ही न डूब जाये !
आँखों का पानी बचा हो तो
अब भी समय है
फिर कोई न कहे
हम तो
अपनी ही आँखों से गिर गये
अरे! कोई मनुष्य कहे
हम तो इस लायक भी न रहे
बेशर्मी की हदें तोड़ देने वाला कृत्य करते
उन लोगों को भी
किसी स्त्री ने ही जनमाया होगा
एक उन्मादी भीड़
और डरी-सहमी
घबराई
बदहवास
थर-थर काँपती
दो स्त्रियां !
सबसे वीभत्स दृश्य के रूप में
दर्ज किया जाना होगा इसे
और कोई नहीं तो
स्त्री ही दर्ज करेगी इसे
यह होगा
जरूर होगा।

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इस बुरे समय में

इस बुरे समय में
लोगों की पहचान खूब हो रही है
पहचान तो पहले भी होती रही
अब वह पुख़्ता हो रही है
कौन किसका
कितना बिगाड़ सकता है
यह भी सबको पता है
कोई कहता है
कोई चुप रहता है
डरने वाला हमेशा चुप रहता है
सच के साथ खड़ा होने वाला
कभी चुप नहीं रहता
चाटुकारिता करते-करते
घिस चुकी है जिह्वा
फिर भी ईश्वर का नाम जपती है
यह कैसा अधर्म है कि धर्म है!
पता नहीं उसका ईश्वर कौन है।

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वन-वन वसंत

चैत्र मास की अलसुबह
और अलसाई शाम
नव पल्लव कुसुम
के ओठों की लाली
और पलास के गालों में गुलाल
देख हैरान है
दहकता लाल सूरज।
बोगनबेलिया! तुम भी
सतरंगी सपने बुन रही हो !
ओ हरियाये साल वन
तुमने भी दूधिया कलगी से सजा लिया है सेहरा!
ओहो! सेमल तुम क्यों
लाल हुए जाते हो !
ओ महुआ! तुम क्यों
चुप-चुप टपक रहे हो
जैसे किसी बिरहिन के आँसू
अरे! ओ लाल-गुलाबी पुटुस
सतरंगी छटा बिखेर रहे हो तुम भी
ओ तपते सूरज!
तपो खूब तपो
अगर ठंडक चाहो  कभी
तो जोभी वाले खेत में चले आना
घास से ले लेना
थोड़ी सी नमी
थोड़ा सा हरा रंग
और रंग जाना उसके रंग
बचा लेना कटते पेड़
चिरई-चुनगुन
जंगल के जीव
बचा लेना जंगल
बचा लेना जीवन।

⚫ डॉ. विश्वासी एक्का
वार्ड क्रमांक – 09 न्यू कॉलोनी पटेलपारा, अम्बिकापुर (छ. ग.) मो. 9340382843

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