शख्सियत : आस-पास के प्रति सजग हुए बिना कविता नहीं, पाठक विचलित हुए बिना नहीं रहे

कवयित्री प्रमिला वर्मा का कहना

नरेंद्र गौड़

’किसी भी कवि को पढ़ते समय पाठक यही खोजता है कि वह जो लिख रहा, उसमें नया क्या है और वह अपने समय और आसपास के जीवन को देखने, जानने बूझने के प्रति कितना चौकन्ना है। कविता को अपने आसपास के प्रति सजग होना चाहिए और यह बेहतर कवि होने की शर्त भी है। किसी भी कविता को एक मुकम्मिल इकाई की तरह होना चाहिए।’


यह बात इस दौर की सशक्त कवयित्री प्रमिला वर्मा ने कही। इनका मानना है कि असल कविता वह है जिसे पढ़ने के बाद पाठक विचलित हुए बिना नहीं रहे। हालांकि हर कवि ऐसी ही कविता लिखने की कोशिश करता है, लेकिन अपनी मर्जी को कविता पर  थोपा नहीं जा सकता और न शर्तों पर कविता लिखी जा सकती। प्रमिलाजी का कहना है कि हमारे आसपास बिखरी सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक विद्रूपताएं कविता की उठी हुई उंगली की जद में होना चाहिए। कविताएं गुस्से, खीज, गहरी करूणा, स्मृतियों और हमारे समय की बेचैनियों से गुजरती हुई होना चाहिए। उनमें परिश्रम से निकले पसीने की महक आना चाहिए। कविता आलीशान मकान में रहते हुए सुखद जीवन जीकर नहीं रची जा सकती, उसे जनता के बीच जाना चाहिए और उनके सुख दुख की गहरी पड़ताल करने की उसमें तमीज होना चाहिए।

आंसू और लहू से बनती है कविता

एक सवाल के जवाब में प्रमिलाजी ने कहा कि अक्सर कविता में वह दृश्य बार बार सामने आते हैं जो कि अतिपरिचित हुआ करते हैं, सभी के देखे भाले हैं और शायद इसीलिए रचना में वो हमसे अक्सर अनदेखे रह जाते हैं। वो हमारे एकदम आसपास बिखरे जीवन के दृश्य हैं। उनमें आंसू भी होते हैं और लहू भी। असल कविताएं जीवन के जरूरी सवालों को बेलाग ढ़ंग से और बेखौफ होकर उठाती है।

छह कहानी संकलन प्रकाशित

जबलपुर मध्यप्रदेश में जन्मी प्रमिलाजी एमए, पीएचड़ी कर चुकी हैं। अभी तक इनके छह कहानी संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। जिनमें ’ख्वाबों के पैरहन’, संयुक्त उपन्यास, कहानी, ब्रिटिश ऑफिसर के प्रेम जज्बात की -रॉबर्ट गिल की पारो (1824-1879) शोधात्मक उपन्यास, ’नीलोफर के पत्र तुम्हारे नाम’, उपन्यास प्रकाशनाधीनः अंग्रेजी में कहानी संकलन ’ट्वीलाइट लव’, अखबारों की कितनी कतरनें समेटोगी ईवा’ (स्त्री विमर्श) इनके अलावा अनेक अखबारों एवं पत्रिकाओं में साक्षात्कार प्रकाशित हो चुके हैं।

अनेक पुरस्कार मिल चुके

प्रमिलाजी को समय-समय पर अनेक पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है। इनमें महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी पुरस्कार( 1998, 2011, 2017, 2023), बीसवीं सदी की महिला कथाकार की कहानियां जो कि नौ खंडमें प्रकाशित हुआ इसमें भी प्रमिलाजी की कहानी है। इनका नाम ’द संडे इंडियन पत्रिका में प्रकाशित 21 वीं सदी की 111 हिंदी लेखिकाओं में शामिल किया जा चुका है। ’महिला रचनाकारः अपने आईने में’ शीर्षक से इनका आत्मकथ्य सुधि पाठकों में बहुत चर्चित हुआ है। कथा मध्यप्रदेश के वृहद कथाकोष में भी प्रमिलाजी की कहानी शामिल है। आप पुलिस महिला तक्रार केंद्र की सम्मानित सदस्य हैं। प्रमिलाजी विगत 22 वर्षों से विजय वर्मा कथा सम्मान एवं हेमंत स्मृति कविता सम्मान प्रदान करती आ रही हैं। आप इस ट्रस्ट की संस्थापक सचिव हैं। आप लेखन के साथ ही सामाजिक तथा संास्कृतिक गतिविधियों में बढ़ चढ़कर भाग लेती रही हैं।


चुनिंदा कविताएं


यादें

शाम ढले
उजालों का अंधेरे की ओर बढ़ना
और फिर सियाह होता अंधेरा
बार-बार उन्हीं अंधेरी पगडंडियों पर,
लौट पड़ने का मन होना
जहां उजली सफेद चांदनी में
तुम साथ थे
अवश् हाथों से
यादों  को पकड़ लेना
और यादों के जंगल से
एक ‘याद’ को चुन लेना
यहीं कहीं टूट जाना
यादों के भ्रमजाल से
पीड़ा को हृदय में गहरे धंसते
महसूस करते जाना


स्मृतियां

स्मृतियों के झरोखों से
कुछ स्मृतियां सामने आती हैं
सफेद- काली छायाचित्र की भांति
कुछ बचा नहीं मेरे पास
स्मृतियों के नाम पर
पोटली खोले बैठी हूं स्मृतियों की
जहां लगा है शब्दों का अंबार
अंबार से चुन लेती हूं खामोशी
एक शब्द खमोशी!
खामोशी की ध्वनि दूर-दूर
तक जाती है, कान फट जाते हैं
खामोशी के शोर से
कितनी जिद्दी है दिल की धड़कन!
खामोशी की चीत्कार से भी
बंद नहीं होती।

पुनरावृत्ति

मैं क्या हूं ?
जो तुमने दिया
लिखा, भोगा वह हूं मैं
यह अंधकार जो छाया है
मेरे चारों ओर
उसका कारण भी तुम हो
यह सब नया नहीं है मेरे जीवन में
ठिठक गई हूं, इस अंधकार के
सूने गलियारे में
लौट -लौट जाना पड़ता है मुझे
उस प्रकाश की खोज में
जिसमें कभी मेरे पैर जलते थे
तुमने ही तो ला खड़ा किया मुझे
इस सूने अंधकार में
क्या यह खंडहरों पर पुनः
जी उठने वाली सभ्यता की
पुनरावृत्ति नहीं है?
क्योंकि मैं बार-बार
लौटती हूं उन्हीं- उन्हीं
रास्तों पगडंडियों,
उलझाने वाली झाड़ियों के बीच से
कांटे परत दर परत मांस चीरते हैं
तुम ही तो ऐसा कहते हो
मेरे लौट जाने की पीड़ा पर हंसते हो
मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो बंधु!
मैं तुम्हारे शब्दों के जाल में फंसी हूं
कभी सोच कर देखो, मैं जीवित हूं
कभी छू कर देखो, मैं शिला नहीं ,
जीवित प्राण हूंँ
मेरे शब्दों को जज्बातों का मोह नहीं है
जब तुम मुझे ना समझने का
अभिनय करते हो तब मैं
रूष्ट होकर तुमसे अधिकार पाने
तुम्हें समझाने अपने जीवित होने का
अहसास दिलाने पीछे
लौट-लौट पड़ती हूं
उन्हीं राहों से, पगडंडियों से
चुभती झाड़ियों से और
मौन तीव्र वेदना देते कांटों को
एक-एक करके अपने शरीर से
बीनती हूं और तुम मेरे लौट लौटकर
वापस आने की पीड़ा पर हंसते हो
मेरे जीवन का यही एक क्रम है
यही एक क्रम पुनरावृत्ती मात्र।

झुलसा दूं उन अंधेरों को

कुम्हार की भट्टी में
पका दो मुझे ताकि
मैं चमचमाती निकलूं और
झुलसा दूं उन अंधेरों को
बुझते कोयले की आंच
मुझमें लपट बनकर बस जाए
उन दागों को मिटा दूं जो
तुमने लगाए थे सीता पर
वे दाग मैं महसूसती हूं
अपने शरीर पर
मिटाना चाहती हूं अपने
शरीर से ’कुलटा’ के दाग
और तपे मिट्टी के घड़े जैसी
निखर कर आना चाहती हूं
झुलसा देना चाहती हूं,
उन अंधेरों को
जो आंख मूंदकर
तुमने लगाए थे सीता पर
अपवित्रता के दाग।

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