शख्सियत : बाज़ारवाद ने आदमी की अंतरात्मा को बना दिया बंजर जमीन, जीवन का सौंदर्य हो रहा लहूलुहान

साहित्यकार दीपा कांडपाल का कहना

नरेंद्र गौड़

’’आज हम भयावह संकट के दौर से गुजर रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति ने बाज़ार की ताक़त को इतना अधिक व्यापक कर दिया है कि आदमी तक अपनी अस्मिता खोकर बाज़ार की चीज़ बनकर रह गया है और उसकी आत्मा को लगभग बंजर ज़मीन बना दिया है। आज हालत यह है कि आदमी के जीवन का सारा सौंदर्य लहूलुहान हो रहा है। हम अपने पड़ोसी को भी शक की निगाह से देखने लगे हैं। राजनीति, धर्म, संस्कृति सब मूल्यभ्रष्ट और दिशाहीन हो चुके हैं।’’

कवयित्री दीपा कांडपाल


उत्तराखंड गौरव सम्मान प्राप्त कवयित्री दीपा कांडपाल का यह कहना है। इन्होंने बताया कि एक वैदिक ऋषि की प्रार्थना के स्वर मैं बचपन से सुनती आई हूं-
वाचा मधु पृथिवी देही मह्यमः
अर्थात ’हे! प्रथ्वी मुझे वाणी का रस प्रदान करो। मैं कभी किसी से कटु वचन नहीं बोलूं।’ यह थी हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत जिसने उपभोक्ता संस्कृति और बाजारवाद ने मिटियामेट कर दिया है, वहीं राजनेताओं की भाषा देखिए, कहां से कहा जा पहुंची है! कविता में भी फूहड़ता और चुटकले समाहित होने लगे हैं। समाज की नजरों में आज जिस कविता की शक्ल है, वह निराला, बच्चन जी, सुमित्रा नंदन पंत की रचनाओं से मेल नहीं खाती। टीवी पर कविता के नाम पर जो दिखाया, सुनाया जा रहा है, उसे आम जनता कविता मानने लगी है।  एक बुध्दू बक्से ने बहुत- सा जोड़ घटाव किया है।

कबीर, सूरदास, तुलसीदास से प्रभावित

रानीखेत में जन्मी दीपा जी विवाह के पश्चात काशीपुर शहर के जिला उधमसिंह नगर (उत्तराखंड) में रहते हुए स्वतंत्र लेखन कार्य कर रही हैं। आपने हिंदी साहित्य में एमए,बीएड की परीक्षा श्रेष्ठ अंकों से उत्तीर्ण की है। आप चित्रकार भी हैं, इनकी बनाई पैंटिंग कला का बेहतरीन नमूना हैं, उनमें पहाड़ी सौंदर्य के अनेकानेक आयाम देखे जा सकते हैं। आप चित्रकला विशारद की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर चुकी हैं। संत कवीर, सूरदास, तुलसीदास, मीरा, दिनकर आदि कवियों ने इन्हें प्रभावित किया है। एक सवाल के जवाब में बताया कि रचनाओं में काल्पनिकता के साथ सत्य और प्रेरक शब्दों का उपयोग किया जाए इसका खास ध्यान रखती हैं और भाषा की सरलता, सहजता, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने का प्रयत्न करती रही हैं।

उत्तराखंड गौरव सम्मान प्राप्त

दीपा जी को अभी तक उत्तराखंड गौरव, अमृता प्रीतम पोयट्री, उत्तराखंड रायटर्स अवार्ड प्राप्त हो चुके हैं। जाने माने अनुवादक डॉ. अमरजीत कौंके ने इनकी दो कविताओं का अनुवाद पंजाबी में किया गया है जिसका प्रकाशन पंजाबी की प्रतिष्ठित पत्रिका ’प्रतिमान’ में हो चुका है। राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका ’मधुमती’, अमर उजाला, रूपायन, प्रेरणा अंशु सहित अनेक पत्र पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं।

चुनिंदा कविताएं


जिंदगी के बहाने

जिंदगी जब मुस्कुराने के
बहाने ढूंढती है
मां, तेरे आंचल में आने के
बहाने ढूंढती है
जिंदगी जब मुस्कुराने के
बहाने ढूंढती है

खुलती आंखों को तेरी
तस्वीर की दरकार है
तेरे हाथों की छुअन में
बेपनाह प्यार है
अंगुली पकड़ने के
बहाने ढूंढ़ती है
जिंदगी जब मुस्कुराने के
बहाने ढूंढती है

मां तेरी गाई ये लोरी
मीठी सी मिसरी कोई
तेरे हाथों की वो थपकी
जादू की कोई छड़ी
तेरे सीने से लगने के
बहाने ढूंढती है 
जिंदगी जब मुस्कराने के
बहाने ढूंढ़ती है

तू न होती,कुछ न होता
होता ना सारा जहां
तेरे जैसा इस धरा पर है
बता कोई कहां?
तेरे आंचल में छुपने के
बहाने ढूंढ़ती हैं
जिंदगी जब मुस्कुराने के
बहाने ढूंढती है।

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मोबाइल की स्क्रीन पर                                        

वक्त की किताब में बंद पड़ी
वो स्मृतियां मन में रची बसी हैं
जब लिखा करते थे एहसासों में
डूबकर कोई पत्र
क्या कुछ नहीं था, उस पत्र में
कुशल क्षेम पूछने के साथ- साथ
सारी जरूरी बातें
टीवी के मुख्य समाचार की तरह
लिख देते थे मन की सारी बातें
पत्र भर जाता पर मन नहीं भरता था

कितने आत्मीय होते थे ये पत्र
जो सहेजे रहते थे रिश्तों को
बना देते थे दिलों पर एक पुल
एक दूसरे से मिलने के लिए
सोचती हूं कहां गया वो अपनत्व
कितने सिमट गए हैं हम
सारी दुनियां हमारे हाथों में
लेकिन हम सब बिल्कुल अकेले

अंगुलियां नाच रही हैं
मोबाइल की स्क्रीन पर
हाथ कलम पकड़ना भूल रहे हैं
मन भर रहा है अपनों से ही
ऐसे में दूर जा रहा है अपनत्व
अपनो से दूर जाता ये मन
क्या सहेज पाएगा रिश्तों को
और लिख सकेगा
भावों से भरा फिर एक पत्र?

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जंग

इंसान जीत भी रहा है
और हार भी रहा‌ है
अपनों से, सपनों से और जिंदगी से,
जीत उसे शक्तिशाली बना रही है
और हार उसे शक्तिहीन
क्योंकि वो परिस्थितियों में
सामंजस्य बनाना भूल रहा है
वो दूर हो रहा है अपनों से ही
दोनों ही स्थितियों में
अपनों और सपनों से उसकी ये जंग
उसे अकेला कर रही है
और वह कभी खुदकुशी कर रहा है
या फिर ख़ामोश हो भटक रहा है घुप्प अंधेरे में।

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उत्तराखंड

सारे जहाँ की खूबसूरती
की इक झलक
देख लो इधर
तो नैनों को एक अद्भुत
सुकून मिलेगा
वो दृश्य भूल न सकोगे
जब फागुन में यहाँ
जंगल में बुरांस खिलेगा
वो रक्तवर्ण पुष्प
सुंदरता से परिपूर्ण
जो आकर्षित करता है
सभी को ,
दूर देश के सैलानी
आते जब यहाँ
खो जाते हैं इन
सुंदर वादियों में
सुबह सूरज की
पहली किरण
जब पड़ती है
हिम शिखरों पर
एक मौन निमंत्रण
देता सा वो पल
कि देख लो पर्वतों
को, कैसे सोने से
चमक रहे हैं
घास पर ओस के
कण देखो कैसे
दमक रहे हैं
वो देवदार के लम्बे
वृक्ष एक अनोखी
छवि लिए मानों
स्वागत करते हैं
परदेशियों का
वो फलों से लदे
वृक्ष खाली न जाने
देंगे तुम्हें वापस
जब पाओगे उनकी
वो ताजा मिठास
तो खो जाओगे
उस स्वाद में
काफल, बेडू
किल्मोडे़ , हिसालू
दाड़िम, घिघारुं
एक बार चख कर
देखिए भूल न पाओगे
इन खट्टे, मीठे फलों को
ये छोटी- छोटी झाड़ियों
पर लगे ये फल
जितने सुंदर, उतने
स्वाद से भरे
वो हिमदर्शन
वो नदियों का संगम
वो छोटे -छोटे गाड़ गधेरे
वो अलग अलग किस्म के
पेड़ -पौधे अनायास ही
किसी को भी आकर्षित
करने लगते हैं
वो सुबह शाम मंदिरों
में बजती घंटिया
वो हर मौसम में
मंदिरों में श्रद्धालुओं
की श्रद्धा
वो असंख्य देवताओं
का वास ही बनाता है इसे
देवभूमि
जहाँ आस्था, विश्वास
का चरम देखने को
मिलता है
बद्री, केदार
यमनोत्री, गंगोत्री
का दर्शन का
सुख उत्तराखंड
में ही मिलता है।

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