कवि और कविता : यह एक कविता की शुरुआत है
⚫ एक लंबे अरसे से कविताओं के ज़रिए जीवन के दुःख – दर्द और आपसी रिश्तों के ताने-बाने को सहेजते रहे कवि, साहित्यकार नरेंद्र गौड़ के यहां कविता बहुत स्वाभाविकता से आती है। वे कविता की खोज में बहुत दूर नहीं निकलते वरन् कविता को अपने आस-पास ही पाते हैं।⚫
⚫ आशीष दशोत्तर
कविता शुरू कहां से होती है और ख़त्म कहां होती है ? कविता कब जन्म लेती है ? कविता अपना रास्ता कैसे तय करती है ? कविता अपने आसपास के दायरे को कैसे तोड़ती है ? कविता कैसे अपना सफर तय करती है ? ये और ऐसे कई सवाल हैं जो कविता को लेकर हर मनुष्य के भीतर कौतूहल पैदा करते हैं । यह संभव है कि इन सारे प्रश्नों की कोई सर्वमान्य अवधारणा न हो लेकिन इतना तो तय है कि कविता हर मनुष्य के भीतर मौजूद रहती है। वह उसके भीतर से बाहर आने के लिए छटपटाती भी है। जहां कविता बाहर आ जाती है, वहां कविता अपना रास्ता ख़ुद बना लेती है और अपने दायरे को विस्तार देती आगे बढ़ती जाती है।
कविता की यही अवधारणा वरिष्ठ कवि साहित्यकार नरेंद्र गौड़ के यहां भी साकार होती दिखाई देती है । एक लंबे अरसे से कविताओं के ज़रिए जीवन के दुःख – दर्द और आपसी रिश्तों के ताने-बाने को सहेजते रहे कवि नरेंद्र गौड़ के यहां कविता बहुत स्वाभाविकता से आती है। वे कविता की खोज में बहुत दूर नहीं निकलते वरन् कविता को अपने आसपास ही पाते हैं।
सुबह सवेरे खटर-पटर हो रही घर में
उसे ध्यान से सुनो
यह एक कविता की शुरुआत है ।
कुछ और ध्यान दो
एक लय है उसमें जीवन की ।
गरमा गरम चाय का प्याला सौंप गई
आपके हाथों में
चुस्कियां लेते हुए सोचो
दस बार सोचो
जिसने बनाई
उसके हाथों में अनगिनत कविताएं हैं।
रोटियां बन चुकी और
दाल में बघार लगते ही
घर सराबोर हुआ खुशबू से
आपकी भूख और प्यास में शामिल हुई
एक कविता ही है।
यहां यह प्रश्न मन में उठना स्वाभाविक है कि जब कविता हमारे आसपास मौजूद है तो उसे हम देखने में इतनी देर क्यों लगाते हैं ? या फिर उसे महसूस क्यों नहीं कर पाते ? इसका सामान्य सा जवाब यह भी हो सकता है कि हर मनुष्य के पास कविता को देखने की अंतर्दृष्टि नहीं होती। वह कविता को महसूस करता है लेकिन उसे अभिव्यक्ति नहीं दे पाता लेकिन जो अभिव्यक्ति दे पाता है वह कवि कहलाता है । कविता उसके पास चलकर आती है और उससे वह सब कुछ कहलवा देती है जो उसके भीतर चल रहा है। लेकिन क्या कवि भी कविता के उतना नज़दीक पहुंच पाता है ? यहां कवि नरेंद्र गौड़ बहुत ईमानदारी के साथ इस बात को स्वीकारते हैं कि जिस उम्मीद से कविता एक कवि के पास पहुंचती है , कवि उतनी ईमानदारी से कविता के नज़दीक नहीं पहुंच पाता । इसे यूं समझें कि कविता के ज़रिए जो मासूमियत , जिंदगी की हक़ीक़त , जद्दोजहद, विसंगतियां एक रचनाकार के क़रीब पहुंचती हैं , रचनाकार इन सब के पास उतनी शिद्दत से नहीं पहुंच पाता और इस तरह कवि और कविता के बीच का मार्ग एकांगी हो जाता है।
कवि का जीवन जिया
एक बच्चे की नींद लायक
लोरी नहीं गा सका ।
उसके होंठ पर ठहरी
एक चुटकी मुस्कान से
शुरू करना चाहिए मुझे नया जीवन।
शाजापुर में जन्मे नरेंद्र गौड़ ने वर्ष 1969 में अपने लेखन की शुरुआत की और महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं के माध्यम से अपनी प्रभावी कविता को दूर-दूर तक पहुंचाया। पहला कविता संग्रह ‘गुल्लक’ प्रकाशित हुआ जिसे मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का रामविलास शर्मा पुरस्कार मिला । इसके बाद ‘इतनी तो है जगह’ , ‘ झोले से झांकती हरी पत्ती’ के बाद ‘चयनित कविताएं’ काव्य संग्रह के माध्यम से उन्होंने अपनी कविताएं जनमानस के समक्ष रखी। रतलाम में रहकर अपनी सृजन प्रक्रिया में निरंतर रत श्री नरेंद्र गौड़ अपने समय के साथ कदमताल करते हुए नित नई कविताएं सृजित कर रहे हैं ।
उसने अपनी आंखें
डरी हुई दुनिया में खोली।
उसने इत्मीनान से अपना बस्ता खोला
तब भी डरी हुई दुनिया थी उसके चारों तरफ ,
एक चॉकलेट निकाली उसने
डरी हुई दुनिया को बहलाने के लिए,
रंगों की डिबिया भी निकाल चुकी तब
उसने एक मरी हुई तितली निकाली,
उसका इरादा
डरी हुई दुनिया को
और डराने का नहीं था।
ज़िंदगी एक वक्फ़े का ही नाम है। सूरज का उगना और अस्त होना ठीक उसी तरह जन्म लेना और मृत्यु को प्राप्त होना, लेकिन इसके दरमियां जो कुछ होता है वही तो महत्वपूर्ण होता है । ठीक उसी प्रकार से जैसे कविता जन्म ले और कागज़ पर उतरे इस बीच एक रचनाकार के भीतर बहुत से चित्र उभरते हैं । बहुत से अंतर्विरोध उसे घेरते हैं लेकिन वह कविता की राह पर आगे बढ़ता रहता है और एक वक़्त पर जाकर उसे महसूस होता है कि शुरुआत से लेकर अंत के बीच बहुत कुछ ऐसा है , जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए । जिसे महसूस किया जाना चाहिए । असल में वही जीवन का एक बहुत बड़ा सत्य है, जिसे रचनाकार अगर महसूस कर ले तो उसे ज़िंदगी के इस एक वक्फ़े की अहमियत का पता चल जाए।
मैंने कई बार सूरज को
राधू की झोपड़ी से उगते
और बड़े-बड़े दरख्तों के पीछे डूबते देखा है ,
उसके उगने और डूबने के बीच :
गोपी को बैल ले जाते
गीता को घास काटते
मंगल की मां को पिटते
तिनसुखिया के बाप को
उसके ब्याह का कर्ज़ मांगते देखा है।
कवि नरेंद्र गौड़ अपनी कविता के विषय आम जीवन से ही उठाते हैं और उसे विषय को इस तरह विस्तार देते हैं कि वह हर मनुष्य को अपने क़रीब का ही जान पड़ता है। ज़िम्मेदारियों के बोझ तले कितनी ज़िन्दगियां दबी हुई है,इसकी थाह पाने की वे कोशिश करते हैं। सामान्य जीवन में यह कहा जाता है कि जो करता है,वही मरता भी है और भरता भी है। घर-परिवार में जो अपना फ़र्ज़ निभाता है वह सबकुछ सहने पर मजबूर होता है।
सब खा चुके
जो बचा खाया बड़ी दी ने ।
हमें चूमा
अपनी भूख को लोरी सुना
पेट के किसी हिस्से में सुलाया बड़ी दी ने ।
पहले उठी घरों को बुहारा
बासन मांजे
ठिठुरता बाप बनी हमें पढ़ाया बड़ी दी ने ।
बारात आई ससुराल चली सब
न किया ब्याह किसी से बड़ी दी ने।
जीवन का यह दृश्य चिंतित भी करता है और विचलित भी। यह एक परिवार की बात नहीं है। नरेन्द्र जी की कविता एक घर से निकलकर पूरे समाज और देश तक पहुंचती है। गांव और शहर का फर्क, शोषणकारी व्यवस्था और लाभ कमाने की बढ़ती हसरतें भी मनुष्यता और भोलेपन को लूट रही हैं।
दोपहर अब होने को है
नीम के नीचे आने को हैं कुछ गायें
कुछ आवारा लड़के
बिछने को है ताश की बाज़ी।
होने में क्या रखा है
हो जाए एक क़त्ल, फ़साद
अभी यहाँ बहुत कुछ गुज़रने को है।
सुलगने को हैं फूस के कापरेन
पुआल के ढेर
लहलहाती हुई फ़सल चौपट होने को है।
बिलखती हुई औरतों का झुंड
गुज़रने को है
चाय की चुस्कियों के साथ
चटखारे लेकर पढ़ने लायक़ ख़बर देने को
कुलबुला रहा है गाँव।
मेरे ग़रीब गाँव
तुम कितने दयालु हो
धन्ना सेठों के अख़बारों को
ख़बर देते हो।
कवि नरेंद्र गौड़ के यहां विषय की व्यापकता है और उस विषय के साथ पूर्ण न्याय करने की क्षमता भी । वे किसी भी विषय को न अधूरेपन से उठाते हैं और न ही अधूरा छोड़ते हैं। यही कारण है कि उनकी कविताएं बहुत सीधी-सीधी बात करती हुई प्रतीत होती हैं ।
याद नहीं रहा
खुला छोड़ आया दरवाज़ा
गाय आई और चर गई
पाँच ताज़ातरीन कविताएं।
सूखे के दिनों
हरा-भरा चारा लगी होंगी
जुगाली कर रही होंगी
अब किसी दीवार से
खुजाती हुई पीठ।
ये कविताएं समय को आईना भी बताती हैं और समय से आंखें भी मिलाती हैं । कवि वही है जो अपनी कविता के ज़रिए समय की पड़ताल करे । एक रचनाकार हर दौर में प्रतिपक्ष में खड़ा होता है। वह उन असंख्य लोगों के साथ होता है जिनकी आवाज़ को अनसुना किया जाता है । जिसके साथ कोई खड़ा नहीं होता तब एक रचनाकार ही होता है जो ऐसे तमाम लोगों की आवाज़ को बुलंद करता है और यह आवाज़ उन ज़िम्मेदारों तक पहुंचाता है जो असंख्य लोगों को अपने स्वार्थ और शोषण के दमनकारी चक्र में फंसाए हुए हैं ।
पहली बरसात हुई इस घर में रहते हुए
कोई लड़की नहीं खड़ी बाहर आँगन में
दुपट्टे का कोना निचोड़ती हुई
घूम रही बूढ़ी मकान मालकिन
जिसकी गुज़र-बसर का साधन
फ़क़त मैं इकलौता किराएदार
कई बार देख चुकी
कुठ्ठरनुमा कमरे के भीतर आकर
कहीं से पानी टपकता तो नहीं
चारपाई पड़ी है
तुम उसे बुनवा सको बिछ जाएगी
इतनी तो है जगह
छोटी-सी अलमारी भी निकलवा दूँगी
किताबें नहीं फैलेंगी ज़मीन पर,
छत टीन की है
खिड़की खोल दोगे गर्मियों में
कितनी आएगी हवा
कैसे बता पाती लेकिन
हवा का विस्तार
बाथरूम कही जाने वाली
तंग जगह में
मेरी जूठी थाली कटोरी भी
चमका रही थी जहाँ वह
अपने बर्तनों के साथ।
नरेंद्र जी के भीतर का रचनाकार भी इन असंख्य लोगों की आवाज़ बनकर उभरता है । वह शक्तिशाली राजनेताओं को सीधे-सीधे चुनौती भी देता है, उनकी गलतियों पर उन्हें लानत भी भेजता है और अभावग्रस्त समुदाय की बात को अग्रेषित करता है। उनके भीतर का कवि भयभीत नहीं होता और न ही इस बात की परवाह करता है कि कोई ज़िम्मेदार उसे किस दृष्टि से देखता है। नरेंद्र जी के भीतर का रचनाकार अपनी बात को पूरी मुस्तैदी से कहता है, ज़िम्मेदारी से कहता है और बुलंदी से भी कहता है। नरेंद्र जी की कविताएं बहुत तीखी भी हैं और सीधे-सीधे आरोप लगाती हुई भी । ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है जो जनमानस की पीड़ा को समझता हो और उनके दर्द को अपना दर्द मानकर रचना प्रक्रिया से जुड़ा हो । नरेंद्र गौड़ की कविताएं समय के साथ चलती हुई कविताएं हैं । यह कविताएं हमें आश्वस्त करती हैं और नई उम्मीद भी जगाती हैं।
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