साहित्य सरोकार : सेहरी कर लें

पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण
हिमालय की नामालूम घाटियों में
इंसान कहां ?
भूख-प्यास, दुख रहा सनातन
बारहों माह मुकर्रर उनका रमजान
नरेंद्र गौड़
रमजान के दिनों अलसुबह
गलियों में निकल पड़ते फकीर
कस्बे में चारों तरफ ऐलान
हजरात सेहरी का वक्त हो गया
सेहरी कर लें !
सेहरी कर लें !

बरसों हो गए यह आवाज सुनते
रोजा नहीं रखने के बावजूद
करोड़ों लोगों की
भूख-प्यास से वाकिफ होता
मैं जाग जाता हूं
सेहरी करने को कुछ नहीं होता
ऐसे भी लोगों से धरती पटी है
शहर दर शहर
गांव दर गांव
गली दर गली गुजर जाइए
मिली तो मिला वरना उनका रोजा
फाकाकशी व्रत उपवास
कुछ भी कह लीजिए हजरात
सालों साल चला करता है
हजारों बरस हो गए
उन्हें इस तरह जीते
पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण
हिमालय की नामालूम घाटियों में
इंसान कहां ?
भूख-प्यास, दुख रहा सनातन
बारहों माह मुकर्रर उनका रमजान
कई बार मुश्किल हो जाता
उनकी गहरे गड्ढों में धंसी
आंखों का सामना करना
मौज-मजा करते लोगों में कहां शर्म ?
वरना उन्हें लाचारी में गिड़गिड़ाते देख
ऐसे खाए-पिए-अघाए
लोगों की आंखें
जमीन पर टपक पड़नी चाहिए थी
मैं उनींदी आंखों से सपना देखता हूं
भर पेट खाने का
हालांकि रोजेदार नहीं हूं फिर भी
भूख-प्यास के साथ
शिद्दत से जुड़े रहना मुल्क में
नागरिक होने का उसूल है
खासकर तब जबकि
ज्यादातर लोग रोजा नहीं
फाकाकशी करते हैं
उनके घरों के दरवज्जे हर हमेश
भूख के लिए खुले पड़े हैं
पानी मयस्सर नहीं
इसलिए प्यास है
धूप में झुलसती रेत पर
कडुले बिछिए झमकाती
औरतों के साथ
पानी की तलाश में हो लेता हूं
हम मीलों भटकते हैं
तब कहीं आधी-अधूरी
गागर भर पाती है
गर्मी के पहले तथाकथित
जलस्रोत दगा दे जाते हैं
भूख प्यास से जोड़ती
अनंत तक पसरी सुरंग
बुझे हुए चूल्हों-बाल्टियों-गगरियों
डिब्बों-भगोनियों के खालीपन का
ओर-छोर पसरा इतिहास
रोटी-पानी की चीख
बदल चुकी अब उनकी कराह में
किस तरह जगाया जाए उन्हें
सेहरी के वक्त ?
चूसे हुए स्तनों को
चूसते बच्चे थक चुके
सेहरी के वक्त भी
नहीं जागती उनकी मां
भूख और प्यास बारहों महीनें
रमजान मनाती है हजरात
सेहरी का वक्त हो गया
सेहरी कर लें !
सेहरी कर लें !
