IMG_20191128_225642अंडे का फंडा : मुर्गी बनाम सिसायत का डंडा

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नीरज कुमार शुक्ला

(लेखक- पत्रकार हैं)

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दड़बे में मुर्गी मुर्गों के पटेल से… अरे उठो भी, कब तक सोते रहोगे? सूरज सिर पर चढ़ आया है। आज तो तुमने बांग भी नहीं दी। तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?
मुर्गा चौंक कर… इतना उजाला हो गया और तुम अब उठा रही हो। कल ही बता दिया था कि मुझे आज मुर्गा संघर्ष समिति की बैठक में जाना है, …लेकिन तुम्हें तो कुछ याद नहीं रहता।

मुर्गी (चिढ़ कर)… हां-हां, याद है। सुबह से कई बार उठा चुकी हूं। खुद तो देर रात तक जागते रहे। उठाने पर उठे नहीं। अब दोष मेरे सिर मढ़ रहे हो। अब जब भी जल्दी उठना हो तो इंसानों की तरह घड़ी में अलार्म लगा कर सोना।
मुर्गा… ठीक है, ठीक है। अब चुप भी हो जा।
मुर्गी… अच्छा जी, खुद पर बात आई तो चुप करा रहे हो। मां सही कहती है- सारे मुर्गे एक से होते हैं। पहले आसमान सिर पर उठा लेते हैं और जब अपनी गलती पकड़ी जाती है तो सुर बदल जाते हैं।
मुर्गा… लो, शुरू हो गई तुम्हारी कुकड़ू-कूं। तुम मुर्गियों को तो बस मौका मिलना चाहिए मुर्गों को जली-कटी सुनाने के लिए। लगता है हमें ‘मुर्गी पीड़त संघ’ बनाना ही पड़ेगा।
मुर्गी… यही बाकी रह गया है अब। बड़े आए मुर्गी पीड़ित संघ बनाने वाले। संघ बना भी लिया तो तुम्हारी सुनेगा कौन? पता है न तीन तलाक मामले में भी नारी शक्ति ही भारी पड़ी थी।
मुर्गा मुर्गी की बात अनसुनी करते हुए नित्य कर्म निपटाने में लग जाता है। निवृत्त होने के बाद मुर्गी से- मैं जा रहा हूं। दोपहर तक आऊंगा, दाना चुगने।
मुर्गी… आते समय चूजावाड़ी से चूजों को भी लेते आना। सभी साथ में दाना चुगेंगे।
उधर बैठक स्थल पर- कुकड़ू-कूं…, कुकड़ू-कूं… का शोर मचा है। मुर्गों में किसी बात को लेकर बहस छिड़ी है। अचानक सभी चुप हो जाते हैं। सन्नाटा जैसा ‘पिन ड्रॉप साइलेंस’। वहां मुर्गों के पटेल जो आ चुके हैं। सभी मुर्गे एक स्वर में पटेल का स्वागत करते हैं… कुकड़ू-कूं।
अभिवादन स्वीकार करने के बाद पटेल मुर्गा- क्यों भाई, इतना शोर क्यों मचा रखा है।
एक युवा मुर्गा (उत्साहित होकर)… ‘पटेल साहब ! पता है, सूबे की सरकार ने इंसानों के बच्चों का कुपोषण दूर करने के लिए आंगनवाड़ियों में मुर्गी का अंडा बांटने का निर्णय लिया है।’
मुर्गों का पटेल… हां, पता है। ऐसी बातें जंगल में आग की तरफ फैलती हैं। हम को सरकार के इस फैसले का स्वागत करना चाहिए। अगर सभी एक राय हों तो हम सरकार का आभार ज्ञापित करने के लिए रैली भी निकाल सकते हैं।
सभी एक स्वर में ‘कुकड़ू-कूं’ कह कर सहमति देते हैं।
पटेल… ‘तो हमारी आभार रैली निकालना तय रहा। रैली विशाल होनी चाहिए। सभी मुर्गे संकल्प लें कि वे अपनी-अपनी मुर्गियों और चूजे-चूजियों को भी साथ लेकर आएंगे।’
इसके साथ ही बैठक संपन्न होती है और सभी अपने-अपने दड़बे की ओर चल पड़ते हैं। पटेल मुर्गा भी अपने दड़बे में दाखिल हो चुका है। उसे अकेला देख मुर्गी- ‘अकेले ही आ गए, चूजे कहां हैं। एक काम बाताया था, वह भी तुमसे नहीं हुआ।’
पटेल मुर्गा उल्टे पांव फुदकता हुआ चूजावाड़ी जा कर चूजों को ले आता है। आते ही… ‘लो, ले आया तुम्हारे चूजों को। अब जल्दी से दाना दो। …और हां, रविवार को हमें रैली में चलना है। इसमें मुर्गे, मुर्गी और चूजे सभी को शामिल होंगे।’
रैली? कैसी रैली? मुझे तो उस दिन दड़बे की सफाई करना है। (सवाल करते हुए मुर्गी अपनी व्यस्तता बताती है)
‘अरी ओ मेरे चूजों की अम्मा। क्या तुम्हें पता नहीं  सरकार ने आंगनवाड़ियों में पोषण आहार में मुर्गी का अंडा देने का निर्णय लिया है। यह हमारे लिए खुशी की बात है। सफाई रैली से आकर कर लेना। मैं भी हाथ बंटा दूंगा।’ (मुर्गा गर्व की अनुभूति के साथ कहता है)।
यह सुन मुर्गी भड़क उठी… ‘क्या कहा, खुशी की बात? सही है, तुम तो खुश होगे ही न, मुर्गा जो ठहरे। सरकार के फैसले की आड़ में तुम तो मजे कर के चलते बनोगे। उसके बाद जो तकलीफ होगी वो तो हमें ही झेलना पड़ेगी न। ‘संडे हो या मंडे – रोज खाओ अंडे’ विज्ञापन ने पहले ही हमारी मुसीबत बढ़ा रखी है। व्यापारी हमें सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझने लगा है। अब ये आंगनवाड़ी में अंडा बांटने का फंडा और आ गया। हम मुर्गी हैं, अंडा देने की मशीन नहीं जिससे बटन दबाते ही अंडे निकलने शुरू हो जाएं। फिर हमारे फिगर का क्या? अगर हम इसे मेंटेन न रखें तो तुम सारा दिन दूसरों के ही दड़बों में तांक-झांक करते नजर आओ। हमारी भी लिमिट है। हमसे ज्यादा की उम्मीद मत रखो।

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वैसे भी उस इंसान के बच्चों के पोषण की चिंता हम क्यों करें जो अपने स्वाद की खातिर हमारा उपभोग कर लेता है। कभी अंडे के रूप में तो कभी हमें ही हलाल कर देता है और डकार तक नहीं लेता। जब इंसान को हमारी जान की परवाह नहीं तो हम उनके पोषण की चिंता क्यों करें। याद है न सरकार ने पहले पौष्टिक दलिया, ब्रेड, मुरमुरे, पौष्टक खिचड़ी और उसके बाद केसर वाला दूध भी आंगनवाड़ियों में बांटा था। क्या फर्क पड़ा? बच्चों का कुपोषण तो दूर नहीं हुआ, सप्लाई करने वाले ठेकेदार व आंगनवाड़ी का महकमा जरूर पुष्ट हो गया। इस बार भी किसी चतुर-सुजान ने ही अंडे बांटने की युक्ति सुझाई है। फायदा हुआ तो ठीक, नहीं हुआ तो सरकार कह देगी- हमने तो अंडे भेजे थे, आंगनवाड़ी ले जाते समय रास्ते में फूट गए होंगे।
इसलिए तुम कान खोलकर सुन लो, हम ऐसी कोई रैली-वैली नहीं निकलने देंगे जिससे हमारे अधिकारों या इच्छाओं का हनन हो। रैली निकालना ही है तो सरकार के खिलाफ निकालो। ऐसा नहीं कर सकते तो ज्यादा अंडे देने वाली कोई विदेशी मुर्गी ले आओ या फिर सरकार से कहो की वह चीन से प्लास्टिक के अंडे बनाने वाली मशीन ले आए।’
इस तरह सिसायती डंडे का रूप ले कर चुके अंडे फंडे ने सत्तापक्ष व विपक्ष और शाकाहारी व मांसाहारी को ही नहीं, मुर्गे-मुर्गियों को भी दो धड़ों में बांट दिया है। यहां भी कमोबेश वैसे ही हालात हैं। मुर्गे सरकार के पक्ष में तो मुर्गियां विरोध में आवाज बुलंद कर रही हैं। धरने-प्रदर्शन व रैलियों का दौर जारी है। दड़बे सूने हैं। मुर्गे-मुर्गियां अपने-अपने खेमों में आंदोलन की रणनीति बनाने में व्यस्त हैं। भूख मिटाने के लिए दाना जुटाने की चिंता तो किसी को रही ही नहीं। ऐसे में बेचारे चूजे-चूजियों के हाल बेहाल हैं। अंडे खाने से इंसानी बच्चों की सेहत सुधरेगी या नहीं, यह तो पता नहीं लेकिन चूजों की हालत जरूर बिगड़ रही है। इधर, मुर्गियों के खेमे से खबर है कि उनकी नाराजगी सिर्फ इस बात से है कि सरकार ने अंडा बांटने का फैसला तो ले लिया लेकिन जिन्हें (मुर्गी) अंडे देना है उनसे तो पूछा ही नहीं।

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