FB_IMG_1574998513890

सागर से बनी एक बूंद है प्रेम

IMG_20191129_100337

त्रिभुवनेश भारद्वाज

(लेखक रचनाकार व चिन्तक है)

—————————————————————
प्रेम अलौकिक बनाता है। इसका होना ईश्वर के समान उदार विनीत और सहिष्णु होना है। जहां प्रेम का बीज गिरता है, वहां ईश्वरीय तत्व अंकुरित होता है। प्रेम होना असंभव घटना और हो जाए तो जैसे जन्मों की उपासनाएं फलित माने। प्रेम ढाई आखर की गीता है। जीवन वीणा के तार बिन छुएं झंकृत हो जाए। हृदय संपूर्ण अस्तित्व में केंद्रीय स्तम्भ हो जाए। जहां प्रेम महकता है वहां अन्धकार लेशमात्र भी नहीं होता।

आंख बंद होने पर खुली से ज्यादा समर्थ हो जाती है। धन, मन से तुच्छ हो जाता है। एक रौशनी नसीब जगा देती है। अनहद बजने वाली एक ध्वनि ॐ सी पावन हो जाती है। आसमान में बर्क चमकती है तो अज्ञात को उजला कर जाती है। पत्ता भी खड़खड़ाता है तो कोई सन्देश ध्वनित हुआ लगता है। “रा” देह और “धा” सांस बन जाती है। जहां प्रेम प्रगट होता है, वहां कुटियां रजवाड़ा हो जाती है। प्रेम विराट हुए बिना न तो कोई संत्तत्व फलित होता है न कोई उपासना प्रमाणित होती है। जग घुमिया थारे जैसा न कोई ,,,अंतरात्मा तक उकर जाए और नयन से लेकर शिराएं शरीर के तंतु तंतु में “केवलं त्वमेव” की हूंक इतनी सघन हो जाए कि ईश्वर का अधिकृत ठिकाना बन जाए।

IMG_20191128_225642

तब प्रेम गगन में सप्तऋषि तारा मंडल के पास दमक दीप्ति के रूप में नज़र आता है। ईश्वर प्रेम का ही दूसरा नाम है और प्रेम, ईश्वर का सच्चा नाम है। प्रेम अगाध का गन्धर्व गायन है, जिसमे अमृत सी मधुरता है जो केवल स्वाधिष्ठान के लिए ही बनती है। गिरी बून्द और संसार सारवान होकर सुदीर्घ हुआ जैसे चांद को मुठ्ठी में भर लिया हो। मीरा हो या राधा, रामकृष्ण हो या चैतन्य, पूरे होते है अद्वेत से । दूजा है ही नहीं। मैं उसमे वो मुझमें। अलग-अलग सत्ताएं खत्म। एकोहम केवलं। कभी मैं सजनी, कभी वो। उल्लास ही उल्लास।

—–———————————————————-

श्री भारद्वाज  की पुस्तक “मेरी अनुभूति” के अंश

—-——————–————————––————

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *