झुलसाने को इतनी सारी बिटिया कहां से लाए हम ?

🔳 सामाजिक विसंगतियों को उजागर करना उद्देश्य : डाॅ.दीपिका सुतोदिया ‘सखी’

🔳 महिला लेखिकाओं के संगठन की है राष्ट्रीय अध्यक्ष

हरमुद्दा
शाजापुर/रतलाम। गोहाटी (असम) में रहने वाली डाॅ. दीपिका सुतोदिया ’सखी’ उपनाम से साहित्य रचना करती है। सखी नाम से ही यह महिला लेखिकाओं के संगठन की राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। सामाजिक विसंगतियों को उजागर करना उनकी रचनाओं का उद्देश्य है। 

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इन्होंने ही इस संस्था की स्थापना की है। इन्हें अभी तक अनेक छोटे बड़े पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इन्होंने अनेक पुस्तकों तथा पत्रिकाओं का संपादन भी किया है।

गोवा विश्वविद्यालय में पढ़ाई जाती है दो कविताएं

यहां उल्लेखनीय है कि इनकी दो कविताएं ‘आलस्य‘ तथा ‘मैं पेड़ हूं’ को गोवा के विश्वविद्यालयों की पाठ्य पुस्तकों में भी शामिल किया गया है। दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों में डाॅ.दीपिका शिरकत कर चुकी है। देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं नियमित प्रकाशित हो रही है। दूरदर्शन तथा आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से यह रचना पाठ कर चुकी है।

मिले हैं अनेक साहित्य सम्मान

इन्हें साहित्य सम्मान 2018 श्री भारतेंदू हरिशचंद्र समिति द्वारा मिल चुका है। इसके अलावा विद्या वाचस्पति, हिन्दी विकास सम्मान, कल्याणी साहित्य अकादमी से भी सम्मानित हो चुकी है। मारवाड़ी हिन्दी पुस्तकालय द्वारा सृजन धार सम्मान भी मिल चुका है।

यहां प्रस्तुत है इनकी चुनिंदा कविताएं

बिटियाएं

झुलसाने को इतनी सारी बिटिया
कहां से लाए हम
आज दरिंदों पर सब मिल जुल कर
बंदूक उठाए हम
पत्थर दिल भी पिघला जाता है
देख कर ऐसे मंजर को
आंसू बहती धारा पर
कैसे रोक लगाए हम
अब अपने ही धाक लगाकर
लूट रहे इज्जत अपनी
ऐसे में सोचो कैसे बेटी की
लाज बचाए हम
अनहोनी की गिनती बढ़ती ही जाती
अब तो यारों
अम्बर छूती इस गिनती को
कैसे नीचे लाए हम
सोने की चिड़िया कहते हैं
मेरे भारत को दीपिका
आज जहन्नूम सी धरती को
जन्नत कैसे बनाए हम
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गजल

रखना तू मेरा प्यार हमेशा
संभालकर
जीती हूं मैं तो आज भी
तेरा ख्याल कर
रहता है तेरा अक्स
मिरे साथ हर घड़ी
रख्खा है मैंने गम को
तिरे ऐसे पाल कर
यह दिल जिगर क्या
जान भी दे दूंगी मैं तुझे
तू भी तो प्यार से
निरी कुछ संभालकर
रहती है दिल में तेरी ही तस्वीर
रात दिन
कैसे दिखाउं मैं तुझे
यह दिल निकालकर
बैठा है डाॅक्टर मिरी नाड़ी को थामकर
आजा हर एक काम को तू टालकर
करती हूं जिससे प्यार की उम्मीद
रात दिन करता है वो भी तंज सदा
मुझ पे ढालकर
तेरी खुशी ओ गम में
हमेशा ही साथ हूं
बे वजह अब न मुझसे तू कोई सवाल कर
पत्ते जड़े है दीपिका फूटी है कोपले
कह दो हवाओं से कि अब यूं न बवाल कर।
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आंगन

आंगन पीले पत्तों से भर जाते हैं
कभी कभी अपने घायल कर जाते हैं
पहले हमको गैरों से डर लगता था
लेकिन अब तो अपनों से डर जाते हैं
गंगा तट पर यही सोचकर आए हैं
यहां सुना है सब पापी तर जाते हैं
यहां करिश्मे ऐसे भी हो जाते हैं
खादी वाले चारा भी चर जाते हैं
कुछ लोगों की दौलत पता नहीं उनको
और भूख से कहीं यहां मर जाते हैं
सखी लगाई हमने जिनसे उम्मीदें
अक्सर हमको वो गम से भर जाते हैं
सखी लगाई नेताओं से उम्मीदें
लेकिन हमको वो गम से भर जाते हैं।

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