समाज के दलित वर्ग की समस्याओं को उजागर करना कविता का उद्देश्य : अल्पना नारायण
🔳 विभिन्न क्षेत्रों में श्रेष्ठ कार्य करने पर मिले पुरस्कार
🔳 फिल्मों से भी गहरा नाता
हरमुद्दा
शाजापुर/ रतलाम। समाजसेवा के साथ ही कविता लिखने में भी अल्पना नारायण की गहरी रूचि रही है। समाज के दलित एवं शोषित वर्ग से सम्बंधित समस्याओं को उजागर करना इनकी रचनात्मकता का उद्देश्य रहा है।अल्पना नारायण लेखिका संघ से जुड़ी हुई है। महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार और घिनौने अपराध के विरोध में आवाज भी बुलंद करती रहती हैं
वर्तमान में बरेली उत्तरप्रदेश में रहते हुए आप अनेक सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठनों से जुड़ी हुई है। इसके अलावा आपको विभिन्न क्षेत्रों में श्रेष्ठ कार्य के लिए पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है।
बहुमुखी प्रतिभा की धनी
आपको अभिनय का भी शौक है। आपने भोपाल दूरदर्शन पर एकरिंग की है। स्क्रिप्ट एडिटर का निर्वाह भी बखूबी किया है। भोपाल के ही ई टीवी के क्राइम सीरियल में अभिनय किया है। नाटकों में किरदारों का निर्वाह किया है। टेली फिल्म ‘हिलाले इद’ की है। एडवेंचर स्पोर्ट्स के अंतर्गत नेशनल माउंटेन ट्रैकिंग किया है। वर्तमान में बरेली यूपी में रहकर फिलहाल लेखन का कार्य में व्यस्त हैं। वहीं एक फिल्म के लिए कुछ कम कर रही है। बहुमुखी प्रतिभा की धनि अल्पना नारायण हमेशा सकारात्मक रूप से सक्रिय रहती हैं।
अल्पना नारायण की कुछ रचनाएं
अब तक
भोर की पहली
किरन के साथ
रात के आखिरी पहर तक
तुम ही तो रहते थे
ख्यालों में ख्वाबों में
हर पल हर घड़ी
तुम्हें महसूस करना
तुम्हारे साथ हंसना
तुम्हारे साथ रोना
तुम्हारा न होकर भी
तुम्हारा होना
आदत सी बन गए थे तुम
पर न जाने कब
किस खिड़की दरवाजे से
बिना कुछ कहे
चले गए तुम
सिद्धार्थ की तरह
अकेला छोड़कर
भरोसे के सारे खिड़की
दरवाजे तोड़कर
तुम्हारे बिना जीवन की
कल्पना ही कब की थी
कितना मुश्किल था
भावनाओं के भंवर से निकलना
मन के झंझावत से लड़ना
अकेले ही गिरना अकेले ही संभलना
धीरे धीरे फिर एक आदत
बन रही है
आँसुओं को छुपाने की
बेबजह मुस्कुराने की
ख्वाहिशों को दफनाने की
तुम्हारे बिना कुछ नहीं है जीवन में
न आखों में सपने हैं
न सांसों में जीवन
फिर भी कहीं कुछ जिंदा है
अब तक मुझमें शायद………
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प्रतीक्षा
जाने क्यों
इंतजार है
तुम्हारे लौट आने का
जबकि मुझे पता है
तुम अब कभी
लौटकर नहीं आओगे
तुमने फिर से
कोरे केनवास पर
भरना शुरू कर दिए हैं
नए रंग
फिर बसाओगे
सपनों की एक दुनिया
फिर भरोगे मांग
कुंवारी हसरतों की मांग
फिर महकने लगेगी
एहसासों की बगिया
फिर खिल उठेंगी
सपनों की कलियां
फिर जी उठेंगी
दम तोड़ती ख्वाहिशें
तुम फिर से उलझ जाओगे
मुझे मालूम है तुम अब
लौटकर नहीं आओगे
फिर भी में खड़ी हूं उसी मोड़ पर
जहां से बदला था तुमने रास्ता
आंखों में टूटे हुए सपनों कि
चुभन लेकर
तड़पती हुई ख्वाहिशों
के साथ
सिसकती हुई हसरतें लेकर
दिल के अंधेरे में उम्मीद की
टिमटिमाती हुई एक किरण लेकर
तुम एक दिन लौटकर आओगे
जबकि मुझे मालूम है
तुम अब नहीं आओगे
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मधुमालती
मधुमालती छंद सी
कितनी सरल
लगती है जिंदगी
चौदह मात्राएँ
सात सात पर यति
दीर्घ लघु दीर्घ से अंत
पर कितना मुश्किल है
तालमेल बिठाना
जिंदगी हो या छंद
भाव मिलते हैं तो
मात्राएँ नहीं
मात्राएँ मिलती हैं
तो भाव नहीं
कभी कभी
दोनों मिलने पर भी
लगती है कुछ कमी सी
जैसे जबर्दस्ती
भर दिया हो शब्दों को
केवल पूरा करने के लिए
न अपने भाव न अपने शब्द्
बस पूरी करनी है
चाहे जिंदगी हो
या हो मधुमालती छंद
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सफर जिंदगी का
पहचाने रास्तों पर
अनजाने मोड़ हैं
छूने से टूटते ये
रिश्तों के जोड़ हैं
एक ही नगर में
अजनवी पड़ाव हैं
मन में बस घूमते
दांव और पेंच हैं
जिस्म पर अपनों की
अनगिनित खरोंच हैं
आत्मा पर कितने ही
दुःखते से घाव हैं
मुस्कानों पर मंडराती हैं
नागिन सी तकलीफें
खुशियाँ जैसे नोचतीं
गम और दुःख की लिखें
साये सा पीछे पीछे
भागते तनाव हैं
भीड़ भरे मेले में
हम सब अकेले हैं
जिन्दगी के साथ में
हर पल झमेले हैं
मुश्किलों में मिलते हैं
केवल सुझाव हैं
एक ही नगर में
अजनवी पड़ाव है