:: कुछ दिन रतलाम में गुजारिए तो सही :: जिम्मेदारों को गैर जिम्मेदार बनाने की यूनिवर्सिटी है रतलाम “अपना काम है बनता, भाड़ में जाए जनता”

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रतलाम, 1 5 जनवरी। जी हां मैं हूं रतलाम। मेरी स्थापना तो राजा महाराजा के समय से हुई है। उम्र तो 368 साल से अधिक की है लेकिन आजादी के बाद से अब तक अफसोस ही मना रहा हूं। नाम बड़ा और दर्शन खोटा हैं। यह बात मेरे लिए सौ फ़ीसदी सच साबित हो रही है। मुझे बेहद दुख है। पीड़ा है। ग्लानि है कि मेरे प्रति किसी भी जिम्मेदार ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं किया है। या यों कहें कि जिम्मेदारों को गैर जिम्मेदार बनाने की रतलाम यूनिवर्सिटी हो गई है। चाहे वे जनप्रतिनिधि हो या फिर प्रशासनिक अधिकारी।
सब के सब अपने कर्तव्यों को भूलकर इस प्रतिस्पर्धा में लग गए हैं कि गैर जिम्मेदारी का महत्वपूर्ण अवार्ड कौन हासिल करेगा? चाहे वह जनप्रतिनिधि सांसद हो, विधायक हो, महापौर हो या फिर पार्षद सबके सब मक्कारी के मार्तंड बन गए है। इन सब का तो एक ही ध्येय वाक्य है “अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता”।
आम जनता ने जिन्हें अपना रहनुमा चुना, वे ही लफंगे हो गए हैं। एक बार नहीं, बार-बार लगातार आमजन ठगे जा रहे है। छले जा रहे है।

चढ़ी भ्रष्टाचार की भांग

इसी तरह जिला प्रशासन में कलेक्टर, अपर कलेक्टर, संयुक्त कलेक्टर, एसडीएम, तहसीलदार, पटवारी, सब के सब यहां आकर अपने कर्तव्यों को भूल गए। भ्रष्टाचार की भांग ऐसी चढ़ी है कि वे सब कुछ भूल बैठे हैं। स्वास्थ्य विभाग, लोक निर्माण विभाग, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग, जिला परिवहन विभाग, नगर निगम सहित तमाम ऐसे अनेक विभाग के आला अफसर बस नाम के रह गए हैं। काम के तो नहीं रहे। जिम्मेदारी के नाम पर सभी के सभी गैर जिम्मेदारी का चोला ओढ़ चुके हैं। जिम्मेदारी के नाम से यह कोसों ही नहीं लाखों किलोमीटर दूर है। ये सब इतने बेगैरत हो गए हैं जिम्मेदार लोग। गेंडे से भी ज्यादा मोटी चमड़ी के हो गए हैं। मेरे प्रति कर्त्तव्यनिष्ठ जिम्मेदार लोगों को किसी भी बात का कोई असर नहीं होता।

आठवां आश्चर्य है

आठवां आश्चर्य होता है कि कोई जिम्मेदार आखिर इतना गैर जिम्मेदार कैसे हो सकता है? क्यों उसको उसकी आत्मा कचोटती नहीं है? कैसे वह एक निवाला भी हलक के नीचे उतार पाता है?

मैं हैरान हूं गैर जिम्मेदाराना रवैए से

आज मैं इन्हीं सब जिम्मेदारों के गैर जिम्मेदाराना रवैए से हैरान हूं। हतप्रभ हूं कि आखिर इनकी आंख कब खुलेगी अपनी जिम्मेदारी के प्रति? कब इनका जमीर जागेगा अपने कर्तव्य के प्रति? रतलाम में आकर सब के सब तीस मार खां मुर्दे की मानिंद हो गए हैं। पीड़ा होती है देश-विदेश में मेरा जो नाम सेंव, सोना, साड़ी, संस्कार और सदभावना के लिए ख्यात है। सर्वधर्म, समभाव एवं गंगा जमुनी तहजीब के अनुकरणीय आयोजन का भी साक्षी भी मैं बनता ही रहता हूं।

फिर भी करते हैं उम्मीद में सम्मान

मुझे दुख है कि जो व्यवस्थित व्यवस्थाएं पहले थी, वह दिन पर दिन बद से बदतर करने वालों में अधिकारियों का ही हाथ है। बाहर से आने वाले तमाम अधिकारियों ने मेरे नाम को बदनाम कर दिया है। जिम्मेदार अधिकारियों ने शहर की दुर्दशा कर दी है। चंद गांधी छाप टुकड़ों की खातिर पूरे शहर को मरघट बना दिया है। फिर भी संस्कारी शहरवासी ऐसे तमाम अधिकारियों को अब तक पूज रहे हैं। उनका सम्मान कर रहे हैं, इसी उम्मीद में कि कोई तो अधिकारी शहर के लिए काम करें। जबकि वे इस लायक कतई नहीं है।

मेरी गुजारिश से वरिष्ठों से

रतलाम को नाम से पहचानने वालों एवं जानने वालों से, जिम्मेदार अधिकारियों के वरिष्ठ से
मेरी गुजारिश है कि कुछ दिन तो रतलाम में गुजारिए। मैदानी हकीकत को अपनी आंखों से देखिए, अपने पैरों से नापीए और नाक से सूंघीये। महसूस कीजिए कि आखिर मेरे शहरवासियों का क्या कसूर है किस बात की सजा मिल रही है?

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