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दिल्ली के सामाजिक व राजनैतिक तनाव पूर्ण जीवन से कैसे अछूती रह सकती है कविताएं : भारती वर्मा

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हरमुद्दा

छोटी लेकिन कथ्य की गहराई की वजह से भारती वर्मा की कविताएं अलग पहचान रखती हैं। इनका कहना है कि इन दिनों दिल्ली आंदोलनों का गढ़ हो चला है और ऐसी स्थिति में कोई भी रचनाकार अप्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यही वजह है कि कविता कर्म दिल्ली में बहुत चुनौती भरा हो चला है। महानगर का राजनैतिक माहौल, आए दिन होने वाले आंदोलन, बलात्कार सहित अन्य हिंसात्मक घटनाएं किसी भी रचनाकार को बेचैन किए बिना नहीं रहती।

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भारती वर्मा का कहना है कि यही वजह है कि मेरी रचनाओं में दिल्ली सहित देश के विभिन्न भागों में हो रही अप्रिय घटनाएं स्थान बनाने से नहीं चूकती। वैसे देखा जाए तो अतीत से ही देश की राजधानी दिल्ली उहापोह और झंझावातों का सामना करती रही है। मुगलकाल में यहां कम उत्पात नहीं हुए। दिल्ली ने अनेक युद्धों का सामना किया है और यहां का इतिहास रचनात्मकता के साथ मारकाट से भी भरा रहा है।

हिन्दी में एमए कर चुकी भारती वर्मा स्कूल में शिक्षिका है। काव्य रचना के साथ ही कला के क्षेत्र में भी इनकी गहरी रूचि है।

प्रस्तुत है इनकी चुनिंदा कविताएं –

क्या देख रही थी नजर
क्या खबर…..
दीवाल…? जहाँ टिकी नजर
आ रही थी नजर…
या मस्तिष्क में चल रही
बातों के चित्र…

नजदीक थे हम
एक छत के नीचे…
पर मौजूद थे हम
अपने अपने जहान में
क्या सबब था
इस स्थिति के पीछे…
क्या पता….?
ना तुम जान पाए
ना हम कह ही पाए

अश्क बेईमान थे
जो बह निकले
पथराई आँखों से भी….
फिर भी बने रहे
तुम भी अनजान
देख कर भीगी आँखे….

कमजोर जो थे तुम
कैसे बर्दाश्त करते
हमारे बीच के तापमान को
इस सच के सबब को….

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क्यों भाव इतने प्रबल हो जाते हैं…??

हम अपनी ही प्रतिज्ञाओं का ध्वंस कर जाते हैं…
फिर वही शुरुआत होती है।
हाथ उठते हैं मदद के लिए…
सब कुछ भुलाकर…
चलते हैं कदम उसी राह पर..
जहाँ कभी ना जाने की कसम खाई थी।
सशक्त बनते बनते…. कमजोर
और कमजोर होते जाते हैं……?
वही प्रश्न सामने होते हैं हर बार
बार बार…….
जिनको छोड़ा था एक नई शुरुआत के लिए
पहली….दूसरी….बार फिर….
स्व-दृष्टि करती है आत्मालोचना
और जागता है अपराध बोध..

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कई बार ना जाने किस भय से घिरते देखा है
तुमको माँ…
हमारे साथ हँसते,बोलते और खेलते देखा है
मगर चेहरे पर..
कुछ गहरी रेखाओं को देखा है
हमारी खुशी के लिए
माँ को दुनिया से लड़ते देखा है
उसी माँ को रात-रात भर अकेले जागते देखा है
न जाने किस चिन्ता से घिरते देखा है
तुमको माँ…
हर बार हमारी ढाल बनते देखा है
चट्टान सा जिगर…और
निडर बनने की प्रेरणा देते देखा है
मगर कई बार अकेले कमरे में चक्कर लगाते,
नम आँखों के साथ देखा है
ना जाने किस दस्तक की आहट सुनते देखा है
तुमको माँ…
सबके बीच रहते हुए अकेले देखा है
जिस नजर को हमेशा चैकन्ना देखा है
उसी माँ की….
आँखों में नमी और साँसो में धुँआ देखा है
हमें बढ़ाने में माँ को दिन-दिन घटते देखा है
तुम्हारे माथे पर कुछ अमिट लकीरों को देखा है
मगर माँ में……
दर्द छुपाने की कारीगरी को देखा है

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जब अंजान होते हैं हम
तब मिलना कितना आसान
होता है ना

जब हम जान जाते हैं
एक दूसरे को
तब मिलना कितना मुश्किल
हो जाता है

आमने – सामने हो कर भी
असहज से रहते हैं
ना जाने क्या छुपाने की कोशिश
करते हैं

वो सच छिपाते हैं
जो हम एक दूसरे के बारे जानते हैं
या एक झूठा वातावरण बनाते हैं
जिससे माहौल ठंडा रहे…

बोलते हैं..
बहुत सोच समझ कर
पर आँखों की भाषा साथ नहीं देती
जुबान की भाषा का

मुख मुद्राएं देखने लायक होती हैं
पलकें बार बार झपकती हैं
दोनों हाथों की उंगलियां ना जाने
एक दूसरे से क्या कहती हैं
शरीर में असहजता बनी रहती है

और मस्तिष्क में चलते हैं
वो चित्र जो आवरण हटाते हैं
सच बताते हैं आपका और मेरा

फिर लगता है कितना आसान था
पहली बार मिलना..
और कितना कठिन है आज का मिलना।

🔳 प्रस्तुति : नरेंद्र गौड़

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