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नयनों की लिपी


त्रिभुवनेश भारद्वाज

शब्द से चेतना तक फैले हुए हैं
हर तरफ नयन ही नयन
नयनो की अपनी लिपि
अपनी भाषा अपनी विधा
अपनी सूक्तियां
अपने दोहे अपनी चौपाइयां
नयनो के अपने सरोवर
अपने सागर और अपनी नदियाँ
नयन ने अपने उपवास
अपनी उपासनाएं अपनी पूजा
नैनों की अपनी यात्राएं
अपने वृतांत अपनी पीडाए
नयनों की अपनी कैद
अपनी जंजीरे
नयनों के पाने प्याले और मयकदा
मन झांकता है पूरा का पूरा
दिल डोलता है डोरों में नैनों के
नयनो के अपने आमन्त्रण
पलके जब जब झपकती है
नयनों की दीपिका दमकती है
जबान खामोश हो तो
नयन बोलते है
नयन भद्र भी अभद्र भी
नयन विनीत भी उदंड भी
नयन संतत्व की अग्नि तो
नयन भोग का द्वार भी
नयन मोहन का सम्मोहन तो
नयन करुणा का सत्कार भी
नयन पावस की ठंडक तो
नयन भीषण झुलस भी
नयन ह्रदय का पूरा कृतित्व है
जैसे नयन है वैसा ही व्यक्तित्व है।

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