संसार को बदलने का कारगर तरीका हो सकती हैं कविताएं : रतन चौहान

🔲 नरेंद्र गौड़

रतलाम शहर साहित्यकारों का गढ़ रहा है। इसके अलावा यहां जनवादी साहित्य की गतिविधियां भी लम्बे समय से सक्रिय रही है। संसार को बदलने के लिए कविता एक कारगर तरीका हो सकती है। यदि उसे ईमानदारी से लिखा जाए और लोगों तक पहुंचाया जाए।

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अनेक जननाट्य एवं जनआंदोलन की इसी नगरी के गांव इटावाखुर्द में 6 जुलाई 1945 को जन्में रतन चौहान की साहित्यिक प्रतिष्ठा उनकी कृतियों एवं अनुवाद कर्म की वजह से सम्पूर्ण देश में है। अंग्रेजी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के पश्चात आप शासकीय स्नातकोत्तर कला एवं विज्ञान महाविद्यालय रतलाम में अंग्रेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। इन दिनों आप शासकीय सेवा पूर्ण करने के पश्चात स्वतंत्र लेखन में तल्लीन हैं।

देश के बहतरीन अनुवादकों में गिनती

अंधेरे के कटते पंख, टहनियों से झांकती किरणें, तुरपई इत्यादि। काव्य संकलनों का प्रकाशन हो चुका है। रिवर्स केम टू माई डोअर, बिफोर द लीव्ज टर्न पेल, लेपर्ड्स एंड अदर पोयम्स आपके अंग्रेजी काव्य संकलन हैं।
श्री चौहान की गिनती देश के बेहतरीन अनुवादकों में होती है। देश-विदेश की पत्रिकाओं में आपके अनुवादों का प्रकाशन हो चुका है। नो सूनर गुड बाई डियर फ्रेंड्स, पोएट्री आव द पीपल, ए रेड रोज तथा ‘सांग आफव द मेन’ पुस्तकाकार अनुवाद छप चुके हैं।

देश-विदेश की पत्रिका में हुए प्रकाशित

अनेक पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित, साक्षात्कार, कलम, कंक, नयापथ, अभिव्यक्ति, ईबारत, वसुधा, कथन, उद्भावना, कृति ओर आदि पत्रिकाओं में मूल रचनाओं के प्रकाशन के साथ-साथ दक्षिण अफ्रिका, यूरोप एवं रूस के रचनाकारों का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद छप चुका है।श्री चौहान ने इंडियन वर्स, इंडियन लिट्रेचर, आर्ट एंड पोएट्री टूडे, मिथ्स एंड लेजन्ड्स, सेज, टाॅलेमी आदि में हिन्दी के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद किए हैं। आपने एंटन चेखव की कहानी ‘द ब्राइड’ और प्रख्यात कवि समीक्षक अनुवादक विष्णु खरे की कविता ‘गुंग महल’ और ‘लालटेन जालाना‘ के नाट्य रूपांतरण किए हैं। पहचान, चक्रव्यूह सुखों का बंटवारा अन्य नाट्य कृतियां हैं। आपके अंग्रेजी और हिन्दी साहित्य पर अनेक समीक्षात्मक आलेख भी छप चुके हैं। आपका मानना है कि प्रस्तुत संसार को बदलने के लिए कविता एक कारगर तरीका हो सकती है। यदि उसे ईमानदारी से लिखा जाए और लोगों तक पहुंचाया जाए।

प्रस्तुत हैं रतन चौहान की चुनिंदा कविताएं

तालाब के किनारे आने वाले प्रेमी

तीज का चांद भी कम सुंदर नहीं हाता
चमकीले चाकू की धार-सा
वह वहां है आकाश में

ताल के चमकीले पानी में दिखाई दे रही हैं
उस पार के वृक्षों की छवियां

अर्धप्रकाश, अर्धअंधकार में बैठा है
युवा प्रेमियों का जोड़ा

इधर इस बैंच पर बैठा है
दो छरहरी युवतियों के साथ
यह लम्बा, छरहरा लड़का

वहां दीवार के पास भी अक्सर दिखाई देते हैं
स्कूटर पर बैठा लड़का और सायकल थामे लड़की

अद्भुत दुनिया होती है प्रेम की
कितनी निर्भीक, कितनी लापरवाह

विद्रोही प्रेमियों की उत्कटता
अधूरी रह गई गाथाओं का रोमान
पल-पल आंदोलित करता है
और पृथ्वी के शुभारंभ से ही फूटे प्रेम के उत्स के
विरूद्ध नहीं है हम

पर हवाओं में तैर रहे हैं विषैले डंक
और शताब्दियों से घिर रही हैं छायाएं

बाल काट कर निर्वस्त्र घुमाई जाती हैं औरतें
चीते झपट लेते हैं अपने आखेट को
झाड़ियों में
वसंत का कत्ल हो जाता है
और कोई सुराग नहीं मिलता

अंधेरा और और गहरा रहा है
बहुत खूबसूरत और रोमांचकारी लग रही है
प्रेमियों की आकृतियां

पिछले साल से इस साल
आम के पेड़ों पर ज्यादा फूल आए हैं
और इस साल ताल पर
प्रेमियों की आमद भी बढ़ी है

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सैलाना के शिल्पी का गीत

बचपन से लेकर बहुत दिनों तक
अपने पिता से जिनका बचपन
गुजरा सैलाना में
सैलाना के बारे में मैं अनेक कहानियां
सुनता आया

मुझे तो कुछ इतना ही याद है कि
बचपन के दो तीन साल मेरे अपने भी गुजरे
इस कस्बे के उस मकान में
इसमें रहती थी कोई रंगरेज या मनिहारिन
नूरा की मां
और जिसके एक किनारे था सेहतूत का पेड़

घर के सामने ही
एक ऊंची हवेली के दरवाजे पर
गोबर छाबती एक लम्बी, गोरी, छरहरी औरत
देती रहती थी गालियां

दादा ने बताया था कि हीरे को मात देती
वह रूपवान औरत पन्ना थी
और बहुत दिनों बाद में
दोस्त किशन सोनी ने बताया
कि वह सैलाना के महाराजाओं की सताई हुई थी
और विक्षिप्त हो गई थी
भरे यौवन में

अपनी बातों में दादा कई बार जिक्र करते थे
उस बहादुर नौजवान का भी
जिसकी खूबसूरत पत्नी को राजा ने उठवा लिया था
और जो महल की पिछली खिड़की से दाखिल हो गया था
राजा के सोने के कमरे में और उसमें बांध दी थी
राजा की मुश्कें

उनकी बातों में किसी हीरो की तरह उभर आते थे
और आज भी मेरे लिए तो वे हीरो ही हैं

बूढ़े केदारेश्वर के महादेव मंदिर में चढ़ाने
एक विशाल घंटिका ढाली जा रही थी
लावा-सी पिघलती धातु लगातार उढ़ेली जा रही थी कि
सांचें को फोड़कर बाहर बहने लगी धातु
पास ही चौपड़ खेल रहे थे भेरू काका

क्या कुछ कौंधा उनके भीतर कि लपककर
उन्होंने अपनी पहाड़ सी पीठ टिका दी वहां
जहां फूट गया था लावे का नद

‘ रुको मत ढालते जाओ ढालते जाओ‘
कला अपना पूरा आकार ले चुकी थी
कल्पना कीजिए कितनी प्रसन्न हुई होगी
कला की देवियां

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