कोरोना : ‘जनता कर्फ्यू’ यानि स्व-अनुशासन का सबक सीखने का मौका
🔲 नीरज शुक्ला
कोरोना…, कोरोना…, कोरोना…। हर तरफ सिर्फ इसी का रोना। हालात ऐसे जैसे यह बीमारी सिर्फ एक महामारी नहीं बल्कि विश्वयुद्ध (तीसरा विश्व युद्ध) हो। युद्ध भी ऐसा जिसमें न तोप काम आ रही है न ही तमंचे, न गोली उपयोग हो रही है न ही बम। मानव जाति पर यह हमला है ‘नोवल कोरोना वायरस’ (कोविड-19) का है जिसका अहसास जैविक हथियार सा है। जिस विषाणु ने एक पल में दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले देश और दूसरे नंबर की महाशक्ति कहलाने वाले चीन सहित अन्य महाशक्तियों को हिला दिया, वह हमारे देश में भी न सिर्फ दाखिल हो चुका है बल्कि अपनी मारक क्षमता का अहसास भी करा रहा है।
विकसित और अन्य विकासशील देशों की अपेक्षा भारत की भौगोलिक स्थिति अत्यंत विविधताओं व जनसंख्या अतिरेक वाली है। 130 करोड़ की आबादी के मान से यहां के साधन-संसाधन नगण्य ही है। हमारी सरकार, प्रशासन और तमाम मशीनरी अपने स्तर पर इस महामारी से निपटने और इसके असर को कम से कम करने में दिन-रात एक किए हुए है लेकिन उसकी भी अपनी सीमाएं हैं। ये तमाम प्रयास तभी सार्थक और सफल हो सकते हैं जब सभी 130 करोड़ लोग इसमें अपनी सहभागिता निभाएं। यह आसान नहीं है।
इसी को ध्यान रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 मार्च को “जनता कर्फ्यू” नाम से एक प्रयोग करने का आह्वान देशवासियों से किया है। इसका उद्देश्य न तो धर्मांधता है और न ही अपने दायित्वों से पीछे हटते हुए जनता को उसके हाल पर छोड़ना है बल्कि यह पूर्ण रूप से वैज्ञानिक होकर लोगों को स्व-अनुशासन का पालन करना सिखाने का एक तरीका है। इस प्रयोग ने वैश्विक स्तर पर एक सोच विकसित की है जिसकी तमाम आधुनिकता पसंद लोगों और समाजों द्वारा सराहना की जा रही है। इतना ही नहीं ऐसा करने का विचार उन्हें क्यों नहीं आया, यह चर्चा भी छिड़ गई है। इसके विपरीत हमारे देश के कुछ (अति)ज्ञानी लोग इसका मखौल उड़ा रहे हैं, उनके लिए #कोरोना भी मनोरंजन का साधन ही है। भगवान न करे ऐसे ज्ञानियों को “नोवल कोरोना” अपना मित्र बनाए क्योंकि ये वे “मानव बम” हैं जिन्हें दूसरों को नुकसान पहुंचाने की चाह में इतना भी भान नहीं रहता कि इसकी चपेट में वे खुद भी आएंगे और ‘उनके अपने’ भी।
इसलिए जरूरी है यह प्रयोग और ये हैं इसके फायदे
सोशल डिस्टेंसिंग
हमारा नया शत्रु “नोवल कोरोना” वायरस खुद हमारे पास नहीं आता बल्कि उसे लेने के लिए हमें ही जाना पड़ता है। यानी यह अन्य विषाणुयों और जीवाणुयों की तरह हवा से नहीं फैलता बल्कि संक्रमित व्यक्ति के संपर्क और उसके द्वारा उपयोग की गई या संपर्क में आई वस्तुओं व स्थान पर ही प्रभावशील रहता है। हर जगह इसकी सक्रियता का समय भी लगभग निश्चित है। यदि एक साथ पर्याप्त अवधि (वायरस नष्ट होने तक) के लिए उन वस्तुओं, स्थानों और व्यक्तियों तक जाने या संपर्क में आने से रोक दिया जाए तो इसकी व्यापकता रोकी जा सकती है। यह किसी भी दवाई या उपचार से कहीं ज्यादा कारगर है वह भी तब जबकि इसकी कोई दवा या वैक्सीन उपलब्ध न हो। यह या तो सख्ती से हो सकता है या फिर स्व-अनुशासन से। सख्ती विरोध, नकारात्मकता का भाव व डर उत्पन्न कर सकती है जबकि स्व-अनुशासन से सकारात्मकता ही आएगी। इसलिए देश की सरकार ने हमें स्व-अनुशासित होकर अपने शत्रु पर विजय पाने का अवसर दिया है।
ताली बजाना सिर्फ मनोरंजन नहीं, उपचार भी है
ताली बजाना (क्लैपिंग थैरेपी) :
यह एक प्रकार की चिकित्सा है जो एक्यूप्रेसर चिकित्सा पद्धति का हिस्सा है। भारतीय मत अनुसार आयुर्वेद में 3000 ई.पू. एक्यूप्रेशर में वर्णित मर्मस्थलों का जिक्र मिलता है। हालांकि चीन के इतिहास के अनुसार यह पद्धति 2000 वर्ष पहले चीन में विकसित होकर सारी दुनिया के सामने आई। वर्तमान में भारत और चीन के साथ ही हांगकांग व अमेरिका सहित अन्य देशों में भी कई रोगों के उपचार में एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति काम में लाई जा रही है। इसके अनुसार शरीर में 365 एनर्जी (एक्यूप्रेशर) पाइंट होते हैं जिनमें से करीब 39 सिर्फ हथेलियों में ही स्थित हैं। हाथ में वे तमाम मर्मस्थल हैं जिनका संपर्क शरीर के प्रमुख अंगों, तंत्रिका तंत्र से है और इन्हें दबाने से उन अंगों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
ताली ऐसे बजाएं
नारियल अथवा सरसों का तेल अथवा दोनों मिलाकर हथेलियों पर इस तरह लगाएं कि वह त्वचा में अवशोषित (समा) हो जाए। इसके बाद मोजे और चमड़े के जूते पहनें या किसी कुचालक वस्तु पर खड़े/बैठ जाएं ताकि शरीर से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा व्यर्थ न जाए। अब दोनों हाथों को सीधा और एक-दूसरे के समानांतर रखें। हथेलियों को थोड़ा ढीला रखें। हाथों की उंगलियां और हथेलियां एक-दूसरे को स्पर्ष करते हुए ताली बजाएं। ताली इस प्रकार बजे कि सारे एक्यूप्रेशर पाइंट्स पर दबाव पड़े।
ताली बजाने के फायदे
🔲 ताली बजाने पर मधुमेह, हृदयरोग, गठिया, अस्थमा, फेफड़ों से संबंधित समस्या में लाभ होता है।
🔲 दिन में आधा घंटे ताली बजाने पर सर्दी-जुकाम, बाल झड़ने व शरीर_दर्द में राहत मिलती है।
🔲 रक्तप्रवाह अच्छा रहता है। रक्त-धमनियों व शिराओं में मौजूद खराब कोलेस्ट्रोल जैसी रुकावटें और गंदगी साफ होती है।
🔲 ब्लड-प्रेशर नियंत्रण में सहायक है।
🔲 पाचनतंत्र की समस्या में लाभ।
🔲 बच्चे ताली बजाते हैं तो उनमें लिखने संबंधी समस्या व स्पेलिंग मिस्टेक दूर होती है और दिमाग तेज होता है।
घंटी बजाने से जीवाणु-विषाणु नष्ट होते हैं, सकारात्मकता आती है।
घंटी-थाली बजाना
मंदिर की घंटियां कैडमियम, जिंक, निकल, क्रोमियम और मैग्नीशियम से बनती हैं। इसकी आवाज़ मस्तिष्क के दाएं और बाएं हिस्से को संतुलित करती है। जैसे ही आप घंटी या घंटा बजाते हैं उससे एक तेज़ ध्वनि उत्पन्न होती है जो लगभग 10 सेकेंड तक गूंजती है। इस गूंज की अवधि शरीर के सभी 7 हीलिंग सेंटर को एक्टीवेट करने के लिए पर्याप्त है। इससे एकाग्रता बढ़ती है और मन भी शांत रहता है। चूंकि अभी वायरस के संक्रमण का फैलाव रोकने के लिए सभी मंदिर बंद हैं ताकि भीड़ से बचा जा सके इसलिए इसे छोटे रूप में 22 मार्च को शाम 5.00 बजे घर में घंटी या थाली बजाने का विकल्प सुझाया गया है। इससे बेशक मंदिर की घंटियों जैसी ध्वनि उत्पन्न नहीं होगी लेकिन एक निश्चित समय पर ज्यादा से ज्यादा लोग यह प्रयोग करेंगे तो उसका उसका प्रभाव और दायरा स्वतः ही बढ़ जाएगा। शोधों में पाया गया है कि तीव्र फ्रिक्वेंसी वाली ध्वनियों से जीवाणु, विषाणु और सूक्ष्म जीव नष्ट होते हैं और वातावरण शुद्ध होता है। घरों में दरवाजों व खिड़कियों पर विंड चाइम्मस लगाने के पीछे भी यही अवधारणा है। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं। किसी स्थान पर यदि पानी ठहरा हुआ हो तो उसकी सतह पर काफी गंदगी (कूड़ा-करकट) जम जाती है। यदि इस पानी के बीच एक कंकड़ फेंक दिया जाए तो उसमें केंद्र से किनारों की ओर संवहनी धाराएं (तरंगें) उत्पन्न हो जाती हैं और गंदगी उस जगह से हट जाती है जहां कंकड़ फेंका गया है। घंटी बजाने पर भी वातावरण में इसी प्रकार की क्रिया होती है।