उपशांत भाव रखकर ही देश और दुनिया कोरोना संकट से उबर सकेगा : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज
हरमुद्दा
रतलाम,11 अप्रैल। आज अपनी शांति ही वातावरण को शांत बनाएगी। अशांति से अशांति का विस्तार होता है और शांति से शांति का होता है। शांति ही मानव जाति का भला करेगी।शांति किसी बाजार में नहीं मिलती, वरन उपशांत भावों से मिलती है। उपशांत भाव रखकर ही देश और दुनिया कोरोना संकट से उबर सकेंगे।
यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कही। सिलावटो का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री के धर्मानुरागियों को धर्म संदेश देते हुए कहा कि कोरोना वायरस का यह प्रकोप आत्म चिंतन और आत्म रमणता का एक संदेश है। इसमें बिना किसी घबराहट के अनुत्तेजित रहकर आत्म शक्तियों को जगाना चाहिए। कोरोना के चलते इस संकट के दौर में उत्तेजना व आक्रोश का भाव पैदा नहीं करना भी एक साधना है। उत्तेजना में साधकत्व तिरोहित हो जाता है, जबकि सहिष्णुता में साधकत्व निखरने लगता है। उत्तेजना पराजय का ऐसा चिन्ह है, जो जीवन में कटुता का विष घोलती है और शारीरिक नुकसान की बजाए मानसिक नुकसान अधिक करती है। उत्तेजना की आग जहां भी पैदा होती है, वहां सर्वनाश का खुला निमंत्रण मिल जाता है। उत्तेजना में व्यक्ति अपने भले-बुरे, हित-अहित की चिंतन शक्ति को खो देता है। इसके चलते उत्तेजना कभी-कभी व्यक्ति को उन्मत और वि़िक्षप्त भी बना देती है।
उत्तेजना अपने आप में हिंसा
उन्होंने कहा कि अविवेक और अज्ञान ही उत्तेजना को बढावा देते है। ज्ञान का चिंतन किया जाए, तो उत्तेजना का समाधान ही नहीं मिलता, अपितु हर तरह की समस्या सुलझ जाती हैं। उत्तेजित होने वाले व्यक्ति को अंत में पश्चाताप ही करना पडता है। उत्तेजना की आंधी में प्रेम, द्वेष में विनय, अविनय में और आत्मीयता, अनात्मीयता में बदल जाती हैं। उत्तेजना अपने आप में हिंसा है। कोई बाहर से मारे और सताए नहीं, लेकिन उत्तेजना में जिए, तो वह भाव हिंसा से गुजरता है। भाव हिंसा व्यक्ति को कायर, डरपोक, कमजोर और दुर्बल बनाती है। उत्तेजना में जीने वाले व्यक्ति की इमिन्युटी पावर कमजोर हो जाता है। चेहरे की सौम्यता, वाणी की मधुरता और विचारों की पवित्रता नहीं पाई जाती। व्यक्ति जब अपने आप में रहना सीख लेता है, तो उत्तेजना को जीत लेता है।
उत्तेजना पर नियंत्रण जरूरी
आचार्यश्री ने बताया कि उत्तेजना हमारा स्वभाव नहीं है। ये तो विकृति है, जो अन्य विकृतियों को अपनी और आकृर्षित करती है। उत्तेजना में जो जितना रहता है, उसका गला उतना सूखता है। पेट में अपच रहती है और भाव तंत्र खत्म हो जाता है। वाणी स्खलित और जीवन चर्या अनियंत्रित हो जाती है। उत्तेजना में सब्र तथा संयम के तटबंध टूट जाते है। इसी कारण व्यक्ति अधीर बनकर कई अनर्थों को बुला लेता है। मन की उत्तेजना भाषा में उतरने पर विद्वेष पैदा करती है और वातावरण को विषेला बना देती है। भाषा की उत्तेजना से ही साम्प्रदायिक सौहार्द का भाव समाप्त होता है। दंगे-फसादों के पीछे भी भाषा की उत्तेजना की अधिक काम करती है। इससे परिवार टूटते है। समाजों में विक्षुब्धता पैदा होती है। वर्तमान में व्यक्ति अशांत है, परिवार विभाजित है, समाज विक्षुब्ध है, राष्ट्र्र आतंकित है और विश्व विनाश के कगार पर है। मनुष्य से लेकर विश्व तक को बचाना है, तो उत्तेजना पर नियंत्रण करना जरूरी है।