संकट के दौर में जनसेवकों की अनुपस्थिति पर उठ रहे सवालिया निशान
संकट के दौर में जनसेवकों की अनुपस्थिति पर उठ रहे सवालिया निशान : डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला
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पिछले एक माह से लगातार कोरोना से जूझने वाले पुलिस और स्वास्थ्य कर्मियों, चिकित्सकों और पत्रकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिये हमारे पास शब्द नहीं हैं। जान जोखिम में डाल कर और अपने घर-परिवार से दूरी बना कर कोरोना-संक्रमितों की रक्षा करना और संक्रमण से बचाव के संसाधन जुटाना हँसी-खेल नहीं है। लेकिन इस कठिनतम दौर में चुने हुए सम्मानित विधायकों और तमाम जन प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति कई सवाल खड़े करती हैं।
यह ऐसा वर्ग है , जो समाजसेवा के नाम पर राजनीति में तो आ गया, लेकिन जब समाजसेवा का असली मौका आया, जनता त्राहि-त्राहि करने लगी , तब इनकी आवाज भी नहीं सुनाई दी, और न ही ये जनता के दु:ख-दर्द में शामिल दिखाई दिये। क्या ये पूरे तंत्र को व्यवस्था में झोंक कर अपने-अपने आशियाने में आराम तो नहीं फरमा रहे हैं?
काम नहीं हैं सरल
‘लाॅक डाऊन’ और ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ का पालन करवाना सरल काम नहीं था, फिर भी पुलिस कहीं डंडे के बल पर, तो कहीं छोटे-छोटे जनवादी प्रयोग कर जनता पर असर बनाने में सफल रही है। मरीजों का उपचार कर रहे डाॅक्टरों पर हमले हो रहे हैं, वे मर रहे हैं, फिर भी वे मुस्तैदी से डटे हुए हैं। कुछ काम हमारे जन प्रतिनिधि ज्यादा अच्छी तरह से कर सकते थे। वे जानते हैं कि जनता उनके पीछे खड़ी है, उनकी बात सुनी जाती है, तब उनसे सहज अपेक्षा भी की जानी चाहिए कि प्रशासन के साथ सहयोग करने के लिये कमान हाथ में लें। यह प्रायः देखने में नहीं आया कि विधायक और दूसरे जन प्रतिनिधि मास्क लगा कर जन-चेतना जगाने के लिये गाँव में या शहर में, मोहल्ले-मोहल्ले या गली-गली गये हों। क्या जनता और जन प्रतिनिधियों का सम्बंध चुनाव हो जाने तक ही सीमित है? क्या राजनैतिक मुठभेड़ , टीका-टिप्पणी और मतलब परस्ती से आगे इनकी कोई गति नहीं है? राष्ट्रीय आपदा के इस कठिन समय में जन प्रतिनिधियों का जनता से इतने दूर चले जाना लोकतांत्रिक खतरे के संकेत प्रतीत होते हैं।
विजय की मुद्रा में पड़ौसी राज्य
आज हमारा पड़ौसी राज्य छत्तीसगढ लगभग विजय की मुद्रा में आ रहा है।वहाँ कोरोना से निबटने के लिये सबसे बड़ी भूमिका वहाँ के मुख्यमंत्री और तमाम जन प्रतिनिधियों ने निभाई है। मध्यप्रदेश के जन प्रतिनिधियों को छत्तीसगढ से प्रेरणा लेनी चाहिए। वहाँ पूर्व पार्षद, पूर्व महापौर और पूर्व विधायक तक आगे आये और उन्होंने लोगों को हिम्मत भी दिलाई और समय रहते संक्रमण से बचाव के लिये जन-जागृति फैलाई। हमारे यहाँ नगर निकाय भंग होने के बाद से महापौर और पार्षद निष्क्रिय होकर बैठे हुए हैं।क्या उनका कुछ भी दायित्व नहीं। क्या समाज सेवा के लिये किसी पद पर रहना जरूरी है? क्या पद पर नहीं होने से जनता के प्रति कर्तव्य भी समाप्त हो जाते हैं? इनके पास बहुत बड़ा अवसर था, जब ये लोगों की मदद कर सकते थे, और शासन-प्रशासन की भी। तब शायद ये सच्चे देवदूत बन कर उभरते। काश! ऐसा होता।
तूफान मचाने वाले हमारे जन प्रतिनिधि आखिर हैं कहां
अभी तो हाल यह है कि जरूरतमंदों को राशन बाँटने का काम भी पुलिस कर रही है। कहीं वह भोजन कराती हुई दिखाई देती है, और कहीं लोगों को बड़े प्रेम से समझाइश देती हुई। पुलिस खुद समाज के दर्पण में अपना मानवतावादी चेहरा देख कर आश्चर्यचकित है। किंतु बात-बात में तूफान मचाने वाले हमारे जन प्रतिनिधि इस दौर में कहाँ है? क्या वे रचनात्मक संगठन के साथ खड़े हो कर अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज नहीं करा सकते थे? इस समय सरकार को धन की आवश्यकता है, लेकिन लोगों को ऐसे देवदूतों की आवश्यकता है जो नये भविष्य की आशा जगा सकें, रोग से लड़ने की ताकत दे सकें, संकल्प और संयम का संदेश दे सकें।
यह कौम नहीं दिखाएगी साहस, जान है तो जहान है
विधायक, पंच, सरपंच, महापौर, पार्षद सहित सभी जन प्रतिनिधि,चाहे वे किसी पद पर हों या न हों, उन्हें जनसेवा के लिये आगे आना चाहिए और जन-जन की आवाज बनना चाहिए। इस नाजुक वक्त में आम नागरिक अकेला पड़ा हुआ है। वह अपने लोगों से दूर है, और समाज के ताने-बाने टूटे हुए और बिखरे हुए पड़े है, तब उन्हें शायद अपने प्रतिनिधि ही याद आते होंगे। यही समय है,जब नेताओं को भीड़ से अलग आदमी का चेहरा तलाशने का अच्छा मौका है। अभी वक्त है। लोगों और जन प्रतिनिधियों के बीच की दूरी कम की जा सकती है। क्या आत्म सुरक्षा के साधनों से लैस होकर हमारे जन प्रतिनिधि बस्तियों और मोहल्लों का जायजा लेने के लिए निकलने का थोड़ा साहस दिखायेंगे?