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कोरोना संकट में खुले रखे सहयोग के हाथ और सहानुभुति की आंख : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

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हरमुद्दा
रतलाम,19 अप्रैल। कोरोना के इस तांडव में कई दाता दान दे रहे है। कई सेवाभावी लोग सेवा कर रहे है, अगर आप से दान, सेवा नहीं हो सके, तो कोई बात नहीं। आप शुभ भाव तो निर्मित कर ही सकते है। शुभ भावों की पूंजी सबके लिए लुटाई जा सकती है। शुभ भावों के साथ छोटे से छोटा सहयोग भी बहुत बडा वरदान बनता है। शुभ भावों की पूंजी स्वयं की होती है,इसमें बहुत बडी शक्ति समाई हुई है। शुभ भावों के फैलाव से ना केवल हमारी मानवता उजागर होती है, अपितु वह दिव्यता प्रदान करने वाली भी बन जाती है।
यह प्रेरक संदेश शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने दिया। सिलावटो का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री ने धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में बताया कि सहयोग और सहानुभुति में संसार का अपूर्व सौंदर्य बसा है। सच्चा सुख और पारस्परिक संबंधों को जोडकर रखने की बेजोड कला सहयोग और सहानुभुति में समाहित है। कोरोना के इस तांडव में हर व्यक्ति के सहयोग के हाथ और सहानुभुति की आंख खुलनी चाहिए। सुखी, समृद्ध और सफल होना पुण्य का सुफल है, जबकि किसी को दुखी, विफल, कमजोर देखकर सहयोग के हाथ बढाना सौभाग्य का सूचक है।

तेजस्वी बनाए सहानुभूति की आंख

आचार्यश्री के अनुसार केवल अपने सुख के लिए जीना स्वार्थ है, स्वार्थ की चेतना संकुचित होती है। वह ऐसो घेरों से आबद्ध होती है, जो दूसरों के दुख-दर्द को नहीं समझ सकते। परमार्थ भाव से अपने सुख को दूसरों को अर्पित करने वाली चेतना महान होती है। ऐसी चेतना तेरे-मेरे के भेद से उपर उठकर मानव मात्र के प्रति सजग बन जाती है। सुखी और समृद्धशाली व्यक्तियों का दायित्व एवं कर्तव्य है कि सहयोग के हाथों को विस्तार देकर सहानुभुति की आंख को तेजस्वी बनाएं। हमारे छोटे से सहयोग से अणु-विराट, तुच्छ-महान और विफल-सफल हो सकते है। ऐसे सत्कर्म ही व्यक्ति को महान बनाते हैं।

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सहयोग की भावना विराट, निस्वार्थ हो

आचार्यश्री ने कहा कि नफरत, घृणा, तिरस्कार के भाव वाला व्यक्ति कभी किसी का सहयोग नहीं कर सकता। सहयोग लेना जितना आसान है, सहयोग देना उतना ही कठिन है। सहयोग की आत्मा उदारता है। उदार मन का व्यक्ति ही कठिन समय में किसी का सहयोगी बन सकता है। समय की महत्ता को समझकर आज जिसके भी जीवन में कष्टदायी समय आया है, उसका सहयोगी बनना चाहिए। यही हमारा फर्ज बनता है। सहयोग की भावना विराट, निस्वार्थ हो तथा आत्मा प्रेम से जुडी होनी चाहिए। उन्होंने कहा बदले की आकांक्षा रखकर किया जाने वाला सहयोग साधना नहीं, अपितु सौदा है। इसमे स्वार्थ की बू आती है। सहयोग तो निस्वार्थ और निष्काम होना चाहिए। सबका भला चाहने वाला स्वयं का भी भला कर लेता है। भलाई की सोच रखने वाला पैसों की साधनों की कमी नहीं देखता और अवसर का मूल्यांकन करता हैं। अवसर पर किया गया कार्य दूसरों के लिए प्रेरणा एवं उत्साहवर्धन का माध्यम बनता हैं।

बुराई की इच्छा को दबा देता है नेकी का संकल्प

आचार्यश्री ने कहा कि नेकी संकल्प नेक व्यक्ति ही कर सकता हैं। नेकी के संकल्प से वह बुराई की इच्छा को दबा लेता है, क्योंकि बुराई की इच्छा व्यक्ति को सहयोगी नहीं बनने देती। किसी की बुराई की इच्छा नहीं हो, तो अच्छाई के प्रति उत्साह का ना जागना भी एक बुराई है। नेकी के प्रति संकल्पित व्यक्ति हर अच्छाई का स्वागत करता है और पूरी तमन्ना के साथ अच्छाई को अंजाम देता है। अच्छाई का आचरण ही आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण करता है। दया,दान, मैत्री और मधुर वाणी से बढकर कोई अच्छाई नहीं है। इस अच्छाई के विस्तार में लगा मानव अपने जीवन को सफल और सार्थक कर सकता है।

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