नर को बनाती है नारायण सेवा : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

🔲 कोरोना के संकटकाल में सौभाग्यशाली बनने का आह्वान

हरमुद्दा
रतलाम, 3 मई। शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी महाराज ने हर मानव से कोरोना के इस संकट काल में सौभाग्यशाली बनने आह्वान किया है। उनके अनुसार अर्थ और पदार्थ के मोह का त्याग करके उसे सेवार्थ समर्पित करना आज की परम आवश्यकता है। सेवा अपने द्वारा अपने जीवन के निर्माण की वह साधना है, जो इन्द्रियों, मन और वाणी पर नियंत्रण रखने से सधती है। सेवा में नर को नारायण बनाने की शक्ति है।

आचार्यश्री ने सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन से धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में कहा कि विसंगतियों से भरे इस जगत और जीवन में संगति बिठाने का काम एक मात्र सेवा करती है। सेवा वह कला है, जिससे जीवन सार्थक ही नहीं सफल और सरस बनता है। मानव जन्म मिलना पुण्योदय है और इसे सार्थक कार्यों में लगाना सौभाग्योदय है। सौभाग्यशाली वही होता है, जिसमें सेवा, सहयोग और सहानुभुति के अंकुर फूटते है। सेवा को सहिष्णुता, सापेक्षता और सात्विकता प्राणवान बनाते है। परस्पर में यदि अगर सौहार्दभाव नहीं हो, तो सेवा दम्भ और दिखावा बनकर रह जाती है। सेवा शक्ति को क्षीण नहीं, बल्कि नई शक्ति का सृजन करने वाली हैं, इसलिए सेवा सारे दारिद्रय का समाधान बनती है। दिल से सेवा करने वालों के जीवन में सारे दुख, दारिद्रय और द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं।

धर्म से वंचित रह जाते कल के भरोसे बैठने वाले

आचार्यश्री ने कहा कि कल के भरोसे बैठने वाला सेवा धर्म से वंचित रह जाता है, जबकि आज के मूल्य और महत्व को समझने वाला अपने को सेवा में समर्पित कर देता है। आज ही हमारा है, कल का क्या भरोसा है, सेवा तो समय, सन्मति और सदाशय के चरणों पर खड़ी होती है। ज्ञान और आचरण का समन्वित रूप एक मात्र सेवा में दिखता हैं, सेवा के अभाव में ज्ञान अहंकार और आचरण मात्र पाखंड बनकर रह जाता है। सेवा में ही व्यक्ति दूसरों के हदय में स्थान और सम्मान पाता है। हदयस्पर्शी सेवा से क्रूर से क्रूर व्यक्ति में कोमलता के भाव उत्पन्न हो जाते है। सेवा का उदभव स्थान भावना है। भावना और विवेक के मिश्रम से सेवा नर को नारायण बना देती है।

सेवा के महत्व को समझने वाले का सूर्य नहीं होता है अस्त

आचार्यश्री ने बताया कि समय और प्रसंग की पहचान करना और सही समय पर सही काम कर देना सेवा का अंतरहृदय है। सेवा के महत्व को समझने वाले लोग जिस घर, परिवार, समाज और राष्ट्र में होते है, उसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता। वहां सदैव उजाला ही उजाला रहता है। सेवा को भारभूत मानना जीवन का कलंक है। धर्म और आध्यात्म की सारी शक्तियों का जागरण सेवा के आचरण में छुपा है। कोई व्यक्ति यदि एक-दुसरे के सुख-दुख नहीं बांट सकता, तो सदाशय रखकर एक-दूसरे के सुख-दुख में संवेदनशील तो बन ही सकता हैं। संवेदनशीलता ही दुख की शक्ति को कम करने वाली बन जाती हैं। संवेदनशील मानव ही सेवा के मर्म को समझता हैं। सेवा से ही सार्वजनिक और वैयक्तिक जीवन धन्य बनता है। यह ऐसा परम और पुनीत कर्तव्य है, जो शांति, सौजन्यता और सुखद वातावरण निर्मित करने का माध्यम है। सेवा में उठे हाथ ओर सेवा में लगा हदय सौभाग्यशालियों को प्राप्त होता है। सेवा की कमी दूर नहीं होती, तब तक प्रगति नहीं होगी। इसलिए सेवा को जीवन का अभिन्न अंग बनाएं। कोरोना के इस संकटकाल में सेवा ही ऐसा जज्बा है,जिससे पूरी दुनिया में भारत का डंका बज रहा है।

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