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चिंता से नहीं चिंतन से जीना श्रेष्ठ : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

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हरमुद्दा
रतलाम, 5 मई। मनुष्य अपने जीवन में बचपन से पचपन तक जवानी से लेकर बुढ़ापे तक किसी ना किसी चिंता, घुटन, अवसाद या तनाव से ग्रस्त होता है। चिंता किसी समस्या का समाधान नहीं होती, बल्कि यह अनेक समस्याओं की जनक बन जाती है। चिंतन अगर सकारात्मक और सर्जनात्मक होता है, तो वह समाधान की लो पैदा करता हैं। प्रबुद्ध और शुद्ध मन से चिंतन होता है। चिंता मन की प्रबुद्धता और शुद्धता पर आच्छादन करती है। यही कारण है कि हर मानव बहुत जल्दी चिंतातुर, भयातुर और शोकातुर हो जाता है।
यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कही। सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री से धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में उन्होंने कहा कि चिंता के प्रकट होने का सबसे बडा कारण व्यक्ति का निराशाभरा दृष्टिकोण है। व्यक्ति हर समय में निराश रहता है। उसे अपनी क्षमता और योग्यता पर अविश्वास, संदेह बना रहता है। वह यह सोचा करता है कि उससे कुछ नहीं होगा। उसकी तकदीर साथ नहीं देती, उसमें कुछ करने की शक्ति ही नहीं है। ये सारी बातें उसे निराश, हताश और उदास करती है। निराशावादी दृष्टिकोण वाला व्यक्ति अपने भाग्य को कमजोर आंकने की भूल करता है। हर काम में माइनस पाइंट ढूंढने की उसकी आदत हो जाती है, तो वह लम्बे अरसे तक उत्साहहीन होकर कुछ नहीं कर पाता है। मानसिक विकृति ही चिंता को बढावा देती है। इसके चलते मनुष्य कही का नहीं रहता। उसे हर समय एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई नजर आती है।

चिंतन से मिलती है चिंता की मुक्ति

आचार्यश्री ने कहा कि कोरोना के इस संकटकाल में अगर मानव चाहे तो चिंता मुक्त रहकर सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। चिंता मुक्ति,चिंतन से ही प्राप्त होती है। भयमुक्त चिंतन स्वाभाविक होता है। उसमें किसी तरह की विकृति नहीं होती। यदि जो हुआ, वह अच्छा और जो होगा वह भी अच्छा होगा का चिंतन किया जाए, तो इस चिंतन से व्यक्ति भय की ग्रन्थि से मुक्त हो जाता है। अन्यथा छोटी-छोटी बातों का भय मन को कायर, कमजोर, उत्साहहीन बना देता है। भय और चिंता का गहरा संबंध होता है। भयभीत व्यक्ति ही निरर्थक बातों का वहम पालता है। वहम अक्सर झूठे होते है। वहम करके व्यक्ति अपनी मानसिक क्षति करता है, जो शारीरिक क्षति से कई अधिक गुना होती है। मन रूग्ण बनता है, तो तन निरोग नहीं रहता। मन का प्रभाव तन पर पडे बिना नहीं रहता। मन के जितने रोगी मिलते है, उतने तन के नहीं होते। चिंता, भय, वहम, अविश्वास और निराशा आदि मन के रोग है, जो तन को कमजोर बनाते है।

चिता मुर्दे को तो चिंता जिन्दे को जलाती

आचार्यश्री ने कहा कि चिंता करने के बजाए चिंतन करना अच्छा होता है। चिंतन को निर्णय में बदलकर उसके अनुसार कार्य करना चाहिए और जो परिणाम आए, उसे स्वीकार करना चाहिए। तनाव देने वाली बातों का विस्मरण करो और जो बात तनाव दे, उसे अहमियत मत दो। विपरीत होने पर उसे भी सहजता से लेंगे, तो शांति मिलेगी और जीवन चिंता मुक्त हो जाएगा। हमे यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि चिता यदि मुर्दे को जलाती है, तो चिंता जिन्दे को जला देती है। चिंता स्त्री के सौंदर्य, पुरूष के बल, विद्वान की विद्या और संत के ज्ञान को खा जाती हैं। चिंता से जो भी बचता है, वह अनेक समस्याओं से बच जाता हैं। इसलिए प्रेम सबसे करो, विश्वास कुछ पर करो, बुरा किसी का मत करो, जैसे जीवन की सफलता के सूत्रों को आत्मसात करे। कोरोना के संकटकाल में इन सूत्रों से ही विजय मिलेगी।

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